प्रो. दयानंद तिवारी
हिंदी साहित्य के इतिहास में यदि किसी कवि ने शब्दों के माध्यम से जनक्रांति का शंखनाद किया है, तो वह हैं राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’। उनकी कविताएं मात्र भावनाओं का प्रवाह नहीं थीं, बल्कि वे राष्ट्र की आत्मा की वाणी थीं, जो हर भारतवासी को देश के लिए कुछ कर गुजरने की प्रेरणा देती हैं। दिनकर की लेखनी में ओज था, जो आक्रोश को दिशा देता था; करुणा थी, जो संघर्ष को सहिष्णुता में बदल देती थी और दर्शन था, जो इतिहास को वर्तमान से जोड़ता था।
राष्ट्र चेतना के प्रखर प्रतिनिधि
दिनकर की कविताएं राष्ट्रप्रेम की ज्वाला से दहकती हैं। वे भावनात्मकता से आगे जाकर जनचेतना को स्वर देती हैं। उनकी रचनाओं में शौर्य, बलिदान और आत्मबल की ऐसी शक्ति है, जो देशभक्ति को केवल भावना नहीं, एक कर्तव्य के रूप में प्रस्तुत करती है।
‘सीना तान के चलो, समय की पुकार है।
यह अंधकार का समर, नहीं हार स्वीकार है।’
ऐसी पंक्तियां आज भी युवाओं को प्रेरित करती हैं कि वे अपने देश और समाज के प्रति जिम्मेदारी का निर्वहन करें।
सत्ता पर जनता की आवाज: समर शेष है
दिनकर जी की ऐतिहासिक कविता ‘समर शेष है’ केवल काव्य नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा की उद्घोषणा है। जब वे कहते हैं,
‘समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध।’
तो वे हर नागरिक को झकझोरते हैं कि राष्ट्र संकट में हो तो चुप्पी भी अपराध है। उनकी प्रसिद्ध पंक्ति-
‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’
आपातकाल के समय जनक्रांति की आवाज बन गई थी। यह कविता लोकतंत्र में जनता की सर्वोच्चता का स्पष्ट संदेश है।
रश्मिरथी: समता और स्वाभिमान की महागाथा
‘रश्मिरथी’ दिनकर की कालजयी कृति है, जिसमें उन्होंने कर्ण को नायक बनाकर समाज के जातिगत भेदभाव और अन्याय को चुनौती दी। कर्ण के माध्यम से उन्होंने आत्मसम्मान, प्रतिभा और मानवीय गरिमा को प्रतिष्ठा दिलाई।
‘जिसे ना निज जाति का गर्व है,
वह नर नहीं, पशु निरा है।’
और ‘मैं जाति नहीं, प्रतिभा का उपासक हूं’
जैसी पंक्तियां आज भी सामाजिक न्याय और समरसता की प्रेरणा हैं।
धर्मनिरपेक्षता और सर्वधर्म समभाव
दिनकर जी ने धर्म के नाम पर बंटते भारत के विरुद्ध भी सशक्त आवाज उठाई। उनका दृष्टिकोण भारत की साझा संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है।
‘हिंदू-मुस्लिम दोनों यहाँ, भारत मां के लाल हैं हम।
एक रक्त की धार से सनी, एक श्वास के जाल हैं हम।’
यह भावना आज के भारत में कहीं अधिक प्रासंगिक हो गई है, जहां धार्मिक एकता की आवश्यकता सर्वाधिक है।
कविता नहीं, शस्त्र थीं दिनकर की रचनाएं
दिनकर की रचनाएं केवल साहित्यिक कृति नहीं, क्रांति के शस्त्र थीं। उन्होंने अपनी लेखनी से युवाओं को निष्क्रियता से बाहर निकालकर कर्म की प्रेरणा दी।
‘उठो, ताज फेंको, बाहुओं का हार पहन लो,
कसम तुम्हें इतिहास की – जागो, और संघर्ष करो!’
उनकी कविताएं आवाहन हैं-नीति और न्याय की राह पर चलने का।
संवेदना और करुणा का स्वर
जहां दिनकर ओज के कवि हैं, वहीं उनकी कविताओं में गहरी मानवीय संवेदना भी दिखाई देती है। ‘कुरुक्षेत्र’ और ‘धूप और धुआँ’ जैसी रचनाएं युद्ध और पीड़ा की गहराई में उतरती हैं।
‘मनुष्य जब रोता है,
तो धरती की चुप्पी भी बोल पड़ती है।’
यह उनकी करुणा और मानवीय दर्शन का प्रमाण है।
आज के भारत में दिनकर की प्रासंगिकता:-
जब देश पुन: धर्म, जाति और विचारधाराओं के नाम पर विभाजित हो रहा है, तब दिनकर की कविताएं हमें राष्ट्र के लिए एकता और संघर्ष की प्रेरणा देती हैं। उनकी पंक्तियां आज के युवाओं को यह सिखाती हैं कि असली वीरता अन्याय के विरुद्ध खड़े होने में है, चाहे वह सत्ता हो या समाज।
‘बड़े भाग्य से मिला है यह तिरंगा प्यारा,
न भूलें इसके नीचे जीना, और मर जाना हमारा।’
राष्ट्रकवि दिनकर केवल कवि नहीं, राष्ट्र की आत्मा के प्रवक्ता थे। उनकी कविताएं न केवल भावनाएं जगाती हैं, बल्कि विचार उत्पन्न करती हैं। वे भारत के स्वतंत्रता संग्राम से लेकर आज के लोकतांत्रिक संघर्षों तक विचार और क्रांति की मशाल रहे हैं।
यदि भारत को फिर से महान बनना है, तो उसे दिनकर के शब्दों में वह पुकार सुननी होगी-
‘आग छूने से न बचना रे मनुज,
आज तू युद्ध का घोष बन जा!’
(लेखक आचार्य एवं शोध निदेशक, श्री जे.जे.टी. विश्वविद्यालय व सुप्रसिद्ध शिक्षाविद, साहित्यकार एवं राष्ट्रवादी विचारक है)