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साहित्य शलाका : मैं गुलजार होना चाहता हूं…

डॉ. दयानंद तिवारी

गुलजार नाम से प्रसिद्ध संपूर्ण सिंह कालरा का जन्म १८ अगस्त, १९३४ को हुआ। गुलजार हिंदी साहित्य की अनमोल मणियों में से एक बहुमूल्य मणि रूपी कवि हैं। उनकी कविताएं सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों के प्रति प्रखरता से जागरूकता फैलाती हैं, जो कि आज के समय में बेहद प्रासंगिक हैं। साहित्य में कुछ लोगों को पढ़ते वक्त आपको ये नहीं लगेगा कि आप कुछ पढ़ रहे हैं, बल्कि आपको लगने लगेगा कि आप कुछ जी रहे हैं। किसी के लिखे हर शब्द में एक कहानी की शुरुआत दिखने लगती है। किसी की लिखी दो पंक्तियों में जिंदगी और मौत के बीच का वक्त दिखने लगता है। कुछ ऐसा ही जादू गुलजार की लिखी कविताओं में है।
वे एक कवि, पटकथा लेखक, फिल्म निर्देशक नाटककार तथा प्रसिद्ध शायर भी हैं। उनकी रचनाएं मुख्यत: हिंदी, उर्दू तथा पंजाबी में हैं, परंतु ब्रज भाषा, खड़ी बोली, मारवाड़ी और हरियाणवी में भी इन्होंने रचनाएं की हैं। गुलजार शायरी, नज्म और काफी कुछ लिख चुके हैं। खासतौर पर गुलजार के शेर आपको बच्चे-बच्चे की जुबान से भी सुनने को मिलेंगे। खड़ी बोली में लिखी गुलजार की शायरी हर उम्र के लोगों को पसंद आती है। उनका लिखा किसी खास उम्र से ताल्लुकात नहीं रखता।
प्यार पर उम्दा शायरियां लिखने वाले गुलजार, जिंदगी पर भी बेहतरीन लिखते हैं। उनके लिखे में कब प्यार और जिंदगी एक बन जाती है, पढ़ने वाले को पता भी नहीं चलता है। कभी न कभी गुलजार की शायरी हम सभी ने सुनी होगी। आज हम उनकी लिखी बेहतरीन रचनाओं में से उन शायरियों पर नजर डालेंगे, जो उन्होंने जिंदगी के अनुभवों पर लिखी हैं।
उम्र जाया कर दी लोगों ने, औरों में नुक्स निकालते-निकालते
इतना खुद को तराशा होता, तो फरिश्ते बन जाते।
गुलजार की लिखी इस शायरी में जिंदगी का एक बेहद कड़वा सच छिपा है। हम सब यही तो करते हैं, दूसरों में गलतियां निकालते हैं। कई बार तो अपनी गलतियों का इल्जाम भी दूसरों पर ही लगाते हैं। गुलजार कहते हैं कि अगर हम ऐसा करने से बच जाएं तो हम खुद की कमियों पर काम कर सकते हैं और हर क्षेत्र में सफल हो सकते हैं। इस शायरी में ‘फरिश्ते’ का मतलब ही है अपनी जिंदगी में सफल होना।
वक्त रहता नहीं कहीं टिक कर,
आदत इसकी भी आदमी सी है।
इन दो पंक्तियों में इंसान और वक्त की समानता को दिखाया गया है। हम हमेशा वक्त के लिए शिकायत करते हैं कि अच्छा वक्त जल्दी चला जाता है, वक्त बदलते देर नहीं लगती, वक्त किसी का नहीं होता और न जाने क्या-क्या। लेकिन शायद ही हमने कभी सोचा हो कि हम भी वक्त जैसे ही तो हैं, कब बदल जाएं कुछ पता नहीं। वक्त की तरह इंसान भी एक जगह टिककर नहीं रह सकता चाहे वो जिंदगी में हो, काम में हो या फिर रिश्तों में।
एक सुकून की तलाश में जाने कितनी बेचैनियां पाल लीं,
और लोग कहते हैं कि हम बड़े हो गए हमने जिंदगी संभाल ली।
ये तो हम सबकी कहानी है। एक लक्ष्य को पाने में जिंदगी भर लगे रहते हैं, ताकि एक दिन सुकून से रह पाएं। इस सफर में न जाने हम क्या-क्या झेलते हैं, क्या-क्या खो देते हैं। फिर जब एक दिन हम उस लक्ष्य को पा लेते हैं तो जमाना हमारी पीठ थपथपाते हुए कहता है कि ‘आखिर तुम बड़े हो ही गए।’ लेकिन इस बड़े होने के सफर तक हमने क्या झेला है ये सिर्फ हम जानते हैं।
टूट जाना चाहता हूं, बिखर जाना चाहता हूं, मैं फिर से निखर जाना चाहता हूं
मानता हूं मुश्किल है, लेकिन मैं गुलजार होना चाहता हूं।
क्या ये हम नहीं चाहते? शायद हर वक्त चाहते हैं। जिंदगी की लड़ाइयों से जीतकर, बार-बार ठोकर खाकर हम भी निखरना ही तो चाहते हैं। हर वक्त ये हमें मुश्किल लगता है, लगता है कि शायद इतनी हिम्मत हमारे अंदर नहीं है, लेकिन आखिर हम भी गुलजार होना चाहते हैं।
आपकी जीवनशैली में सकारात्मक बदलाव कर सकती हैं, गुलजार जी की कविताओं की श्रेणी में एक कविता ‘इश्क में ‘रेफरी’ नहीं होता!’ भी है, जो कुछ इस प्रकार है:
इश्क में ‘रेफरी’ नहीं होता
‘फाउल’ होते हैं बेशुमार मगर ‘पेनल्टी कॉर्नर’ नहीं मिलता!
दोनों टीमें जुनूं में दौड़ती, दौड़ाए रहती हैं छीना-झपटी भी, धौल-धप्पा भी बात बात पे ‘फ्री किक’ भी मार लेते हैं और दोनों ही ‘गोल’ करते हैं!
इश्क में जो भी हो वो जाईज है इश्क में ‘रेफरी’ नहीं होता!
गुलजार जी की कविताओं की श्रेणी में एक कविता ‘इक नज्म मेरी चोरी कर ली कल रात किसी ने!’ भी है। यह कविता कुछ इस प्रकार है:
इक नज्म मेरी चोरी कर ली कल रात किसी ने
यहीं पड़ी थी बालकनी में गोल तपाई के ऊपर थी
व्हिस्की वाले ग्लास के नीचे रखी थी शाम से बैठा,
नज्म के हल्के-हल्के सिप मैं घोल रहा था होंठों में
शायद कोई फोन आया था…
अंदर जाके लौटा तो फिर नज्म वहां से गायब थी
अब्र के ऊपर-नीचे देखा सुर्ख शफक की जेब टटोली झांक के देखा पार उफक के कहीं नजर न आई,
फिर वो नज्म मुझे… आधी रात आवाज सुनी, तो उठ के देखा टांग पे टांग रखे, आकाश में चांद तरन्नुम में पढ़-पढ़ के दुनिया भर को अपनी कह के नज्म सुनाने बैठा था!
उनकी कविताओं की श्रेणी में एक कविता ‘शराब पीने श्रेष्ठ’ भी है। यह कविता वâुछ इस प्रकार है:
शराब पीने से कुछ तो फर्क पड़ता है, ये लगता है! जरा-सी वक्त की रफ्तार धीमी होने लगती है गटागट पल निगलने की कोई जल्दी नहीं होती खयालों के लिए ‘चेक-पोस्ट’ कम आते हैं रस्ते में जिधर देखो, उधर पांव तले हरियाली दिखती है कदम रखो तो काई है फिसलते हैं, संभलते हैं जिसे कुछ लोग अक्सर डगमगाना कहने लगते हैं शराब पीकर, जो खुद से भी नहीं कहते वो कह देते हैं लोगों की संद कर देते हैं वो नज्म कहकर!
गुलजार जी की कविताओं की श्रेणी में एक कविता ‘इतवार’ भी है। यह कविता कुछ इस प्रकार है:
हर इतवार यही लगता है देरे से आंख खुली है मेरी,
या सूरज जल्दी निकला है जागते ही मैं थोड़ी देर को हैरां-सा रह जाता हूं बच्चों की आवाजें हैं न बस का शोर गिरजे का घंटा क्यों इतनी देर से बजता जाता है क्या आग लगी है? चाय…? चाय नहीं पूछी ‘आया’ ने? उठते-उठते देखता हूं जब, आज अखबार की रद्दी कुछ ज्यादा है और अखबार के खोंचे में रक्खी खबरों से गर्म धुआं कुछ कम उठता है… याद आता है… अफ्फो! आज इतवार का दिन है। छुट्टी है! ट्रेन में राज अखबार के पढ़ने की कुछ ऐसी हुई है आदत  ठहरीं सतरें भी अखबार की, हिल-हिल के पढ़नी पड़ती हैं!
गुलजार साहब की लिखी कुछ चुनिंदा नज्में इस तरह हैं।
मैं अगर छोड़ न देता, तो मुझे छोड़ दिया होता, उसने
इश्क में लाजमी है, हिङ्काो-विसाल मगर
इक अना भी तो है, चुभ जाती है पहलू बदलने में कभी
मैं शब को वैâसे बतलाऊं,
बहुत से दिन मेरे आंगन में यूं आधे-अधूरे से
कफन ओढ़े पड़े हैं कितने सालों से,
जिन्हें मैं आज तक दफना नहीं पाया!!
(लेखक श्री जेजेटी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर व सुप्रसिद्ध शिक्षाविद् और साहित्यकार हैं।)

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