शीतल अवस्थी
काशी के एक अक्खड़ और निडर संत के दोहे हमारी नित जिंदगी का हिस्सा हैं। उनके दोहों को पढ़ना-समझना, उनका दैनिक जीवन में एहसास, समाज पर उसका असर और जटिल तथ्य को आसानी से समझाने में ये बेहद मददगार हैं। उनके ये दोहे अपने अंदर जिंदगी के उन तमाम अनुभवों को समेटे हुए हैं, जिन्हें पाने के लिए हमें समाज की ठोकरें खाने के साथ-साथ किताबी ज्ञान भी अर्जित करना पड़ता है। उस महान संत कवि का नाम है कबीरदास। वे मध्यकालीन भारत के स्वाधीनचेता महापुरुष थे और इनका परिचय, प्राय: इनके जीवनकाल से ही, इन्हें सफल साधक, भक्त कवि, मतप्रवर्तक अथवा समाज सुधारक मानकर दिया जाता रहा है तथा इनके नाम पर कबीरपंथ नामक संप्रदाय भी प्रचलित है।
संत शिरोमणि कबीर दास का आविर्भाव विक्रम संवत १४५६ को ज्येष्ठ पूर्णिमा दिन काशी लहरतारा सरोवर में हुआ था। किंवदंति के अनुसार, वे जगद्गुरु रामानंद स्वामी के आशीर्वाद से काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे, जो उन्हें लहरतारा तलाब में छोड़ आई थी। उस दिन नीरू जुलाहा अपनी धर्मपत्नी नीमा का द्विरागमन करके मड़वाडीह से लेकर आ रहे थे। ज्येष्ठ की तपतपाती दोपहर, नीमा प्यास से व्याकुल हो उठीं। अत: शुभ्रस्वच्छ जल से परिपूरित लहरतारा सरोवर के निकट पालकी उतार दी गई। लहरतारा अलौकिक कमलपुष्पों की बहुलता के लिए सदा से प्रसिद्ध रहा है। ज्यों ही नीमा ने लहरतारा की ओर देखा उनकी दृष्टि एक बड़े कमलपुष्प पर पड़ी, जिस पर एक सुंदर, सुकोमल मनोहारी नवजात शिशु अपने हस्त-पाद से अठखेलियां करता हुआ आनंद से किलकारियां भर रहा था। उसके मुखमंडल पर एक दिव्य आभा फैली हुई थी। कबीर पंथियों की मान्यता यही है कि कबीर की उत्पत्ति काशी कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर हुई थी। खैर, बालक की मनोहारी छवि को देख नीमा से नहीं रहा गया और उन्होंने उस बालक को अपने हृदय से लगा लिया व नीरू के पास आकर बालक को घर ले जाने का हठ करने लगीं। नीरू ने लोग क्या कहेंगे, इस भय से पहले तो नाहिं की, पर नीमा के हठ और बालक के मनोहारी दिव्य आकर्षण में बंधे उनके चित्त ने उन्हें बालक को अपने घर ले जाने को मजबूर कर दिया। वही बालक आगे चलकर महा प्रसिद्ध संत कबीर कहलाए। उनका जुलाहा परिवार में पालन-पोषण हुआ, संत रामानंद के शिष्य बने और अलख जगाने लगे। कबीर सधुक्कड़ी भाषा में किसी भी सम्प्रदाय और रुढ़ियों की परवाह किए बिना खरी बात कहते थे। हिंदू-मुसलमान सभी समाज में व्याप्त रुढ़िवाद तथा कट्टपरंथ का खुलकर विरोध किया।
हिंदू बरत एकादशी साधे दूध सिंघाड़ा सेती।
अन्न को त्यागे मन को न हटकै पारण करै सगौती।।
दिनभर उपवास करके दूध-सिंघाड़ा से तुम व्रत करते हो, अन्न की आसक्ति का तो त्याग करते हो, लेकिन मांस में मन अटका लेते हो तो भला यह तुम्हारा कैसा व्रत है इससे प्रभु कैसे खुश हो सकते हैं? मुसलमान रमजान में दिन भर उपवास रखकर रोजा करते और शाम को गाय मारकर उसका आहार बनाते तो उनको उन्होंने कहा-
दिन को रोजा रहत है, राति हनत हैं गाय।
यहां खून वै वंदगी, क्यों कर खुशी खोदाय।।
अर्थात तुम दिन को तो भूखे रहकर रोजा रखकर खुदा की बंदगी करते हो और रात्रि में हिंसा करके पाप भटोरते हो तो भला खुदा कैसे प्रसन्न हो सकता है? वे गलत परंपरा पर केवल कुठाराघात ही नहीं करते, बल्कि लोगों को कल्याणकारी सही मार्ग भी बतलाते थे। हिंदी साहित्य में कबीर का व्यक्तित्व अनुपम है। गोस्वामी तुलसीदास को छोड़कर इतना महिमामंडित व्यक्तित्व कबीर के सिवा अन्य किसी का नहीं है। एक प्राचीन ग्रंथ के अनुसार किसी योगी के औरस तथा प्रतीति नाम देवांगना के गर्भ से भक्तराज प्रहलाद ही संवत् १४५५ ज्येष्ठ पूर्णिमा को कबीर के रूप में प्रकट हुए थे। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे ‘मसि कागद छूवो नहीं, कलम गही नहीं हाथ।’ उन्होंने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे, मुंह से कहा और उनके शिष्यों ने उसे लिख लिया। कबीर के नाम से मिले ग्रंथों की संख्या भिन्न-भिन्न लेखों के अनुसार भिन्न-भिन्न है।
उन दिनों रामानंदजी महान संत माने जाते थे, लेकिन वे जुलाहों से परदा किया करते। हिंदू-मुसलमान का भेद किया करते थे। अत: जुलाहे कुल में पालित होने के कारण उनको गुरुदीक्षा प्राप्ति में कठिनाई हो रही थी। अंतत: कबीर ने एक युक्ति सोची। रामानंद स्वामी नित्यप्रति ब्रह्मवेला में गंगास्नान के लिए जाया करते थे। कबीर पहले से ही पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर जाकर लेट गए। स्वामीजी जब गंगा में उतरने को आगे बढ़े तो सीढ़ी पर ही उनकी पादुका से कबीर टकरा गए और वे शिशुवत रोने लगे। स्वामीजी ने उन्हें उठाकर उनके मस्तक पर हाथ फेरा, पुचकारा और कहा, बेटा! राम राम कहो। रोओ मत, ठीक हो जाओगे। इसके बाद बालक कबीर घर आकर माला-तिलक लगाकर वैष्णवी वेश धारणकर अपने को स्वामी रामानंदजी का शिष्य घोषित कर दिया। नीमाजी, कबीर की माता, जो मुस्लिम थी, कबीर का वेश देख रोती-कलपती शिकायत ले रामानंदजी के पास पहुंची। रामानंद स्वामी उदार और समाज चिंतक संत थे। उन्होंने कबीर को बुलवाया और पूछा, मैंने तुम्हें कब दीक्षा दी? तब कबीर ने कहा, ‘महाराज! आप ही ने तो मुझे पंच गंगा घाट पर दर्शन देकर ‘राम राम कहो’, कह कर राम नाम का महामंत्र दिया। आप अन्य शिष्यों को भी तो राममंत्र ही दिया करते हैं गुरुवर। स्वामीजी ने कबीर को गले लगा लिया और कहा, ‘पुत्र! जिस तरह तुमने श्रीराम भक्ति अपनाई है, उस तरह किसी ने नहीं अपनाई। तुम जन्म-जन्म के योगी हो और निश्चय आगे चलकर संत सम्राट बनोगे, यह मेरा अशीर्वाद है।‘
संत कबीर दास हिंदी साहित्य के भक्ति काल के इकलौते ऐसे कवि हैं, जो आजीवन समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडंबरों पर कुठाराघात करते रहे। कबीर संत कवि और समाज सुधारक थे। उनकी कविता का एक-एक शब्द पाखंडियों के पाखंडवाद और धर्म के नाम पर ढोंग व स्वार्थपूर्ति की निजी दुकानदारियों को ललकारता हुआ आया और असत्य व अन्याय की पोल खोल धज्जियां उड़ाता चला गया। कबीर का अनुभूत सत्य अंधविश्वासों पर बारूदी पलीता था। सत्य भी ऐसा जो आज तक के परिवेश पर सवालिया निशान बन चोट भी करता है और खोट भी निकालता है। कबीर ने काशी के पास मगहर में देह त्याग दी। ऐसी मान्यता है कि मृत्यु के बाद उनके शव को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया था। हिंदू कहते थे कि उनका अंतिम संस्कार हिंदू रीति से होना चाहिए और मुस्लिम कहते थे कि मुस्लिम रीति से। इसी विवाद के चलते जब उनके शव पर से चादर हट गई, तब लोगों ने वहां फूलों का ढेर पड़ा देखा। बाद में वहां से आधे फूल हिंदुओं ने ले लिए और आधे मुसलमानों ने। मुसलमानों ने मुस्लिम रीति से और हिंदुओं ने हिंदू रीति से उन फूलों का अंतिम संस्कार किया। मगहर में कबीर की समाधि है। कबीर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उनकी प्रतिभा में अबाध गति और अदम्य प्रखरता थी। समाज में कबीर को जागरण युग का अग्रदूत कहा जाता है।