मुख्यपृष्ठस्तंभउड़न छू : अथ पाटलिपुत्र कथा...!

उड़न छू : अथ पाटलिपुत्र कथा…!

अजय भट्टाचार्य

बक्सर की लड़ाई जीतने के बाद अंग्रेजों के कब्जे में उत्तर भारत का बड़ा इलाका था। बरतानिया साम्राज्य के पैर गंगा के मैदान पर जम चुके थे, अब उन्हें यहां लंबा राज करना था। जिन पर राज करना हो, उनकी संस्कृति, मान्यताएं और संस्कृति को समझना पड़ता है। अंग्रेज यह समझते थे, क्योंकि उन्हें राज करने का अनुभव था।
उनके पास एक अध्ययनशील और जिज्ञासु बुद्धिजीवी वर्ग भी था, अंग्रेजों ने उसे शोध करने दिया और भारतीय प्राचीन इतिहास की खोज शुरू हुई। कंपनीr के सेवा में आए कई अंग्रेज भाषा, चलनमुद्रा, प्राचीन ग्रंथों में बड़ी रुचि रखते। विलियम जोन्स कलकत्ते में बनी हाईकोर्ट के जज थे। खुद संस्कृत सीखी। जहां नियुक्त होते, वहां से ऐसी सामग्रियों का संग्रह करते, दूसरे विद्वानों से साझा करते। वे लोग इन्हें विश्व इतिहास के दूसरे अभिलेखों की रौशनी में देखते। यह समूह एशियाटिक सोसायटी बनकर सामने आया और भारतीय प्राचीन (वामपंथी) इतिहास की रूपरेखा बननी शुरू हुई। ग्रीक और लैटिन इतिहास में मेगास्थनीज नाम के व्यक्ति का उल्लेख है, उसकी लिखी किताब इंडिका के उद्धरण मिलते है। इसमें एक सेन्द्रोकोटस नामक राजा, भारत में राज करता बताया गया है, जिसकी राजधानी पालिबोतरा थी। मेगास्थनीज के अनुसार, पालिबोतरा दो नदियों के संगम पर है-गेंगेस यानी गंगा और इरानबोस। अब पालिबोतरा की खोज शुरू हुई। पहला स्थान इलाहाबाद था। पालिबोतरा से इसका ध्वनिक साम्य नहीं था। दूसरा स्थान कन्नौज था। गंगा किनारे था, वहां पुराने राजसी अवशेष हैं, मगर दो नदियों का संगम नहीं। इसलिए कन्नौज भी खारिज कर दिया गया। इसके बाद बंगाल के सर्वेयर जनरल मेजर जेम्स रेनेल के समय एक जबरदस्त खोज हुई। मेजर जेम्स का काम नक्शा बनाना था और भारत का पहला संपूर्ण अधिकतम सटीक नक्शा उन्होंने बनाया था। रेनेल ने ग्रीक इतिहासकार प्लिनी द एल्डर का एक विवरण पाया जिसमें बताया कि पालिबोतरा शहर, गंगा और यमुना के संगम से कोई ४२५ रोमन मील, डाउनस्ट्रीम (नीचे के तरफ) है। यह एक बड़ा सुराग था। रोमन मील, कोई डेढ़ किलोमीटर के बराबर होता है। इलाहाबाद के संगम से ६५०-७०० किमी आगे खोजना था और वहां बसा था अपने पलटू का पटना।
रेनेल ने पता किया कि यहां के लोग मानते हैं कि इस जगह पर किसी समय पाटेलपुत्त नाम का शहर था। ये नाम पालिबोतरा से मिलता जुलता था। एक चीज हल हुई। लेकिन नदियों का संगम? यह भी एक बड़ा प्रश्न था। पटना में गंगा है, पर दूसरी नदी नहीं है। इसके लिए पटना शहर का भौगोलिक सर्वे किया गया। वहां कोई जलधारा नहीं मिली। लेकिन एक सूखी हुई नदी का तल जरूर मिला, जो सोन नदी का था। यह नदी पटना से २०-२२ मील दूर है। पर सोन के नाम का ईरानबोस से कोई ध्वनिक साम्य नहीं। अब भी शक शुबहा बना हुआ था। इस संदेह को जेम्स प्रिंसेप ने दूर किया। प्रिंसेप ने मुद्राराक्षस नाम के भारतीय प्राचीन संस्करण के अनुवाद के समय पाया कि चंद्रगुप्त, जिसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी, वहां गंगा के अलावा दूसरी नदी का नाम था- हिरन्यबाहु। स्टैनफोर्ड में पढ़ा संस्कृत का जानकार स्पूनर तब ब्रिटिश सरकार की एएसआई में नौकरी कर रहा था। उसने खुदाई शुरू की और ठीक सौ साल पहले ७ फरवरी १९१३ को कुम्रहार में उसने अशोक कालीन खंबे खोद निकाले। साथ ही बहुत से विरूपित साक्ष्य मिले, जिनसे साबित हो गया कि यही वह पाटलिपुत्र है, जो कभी भारतवर्ष की राजधानी था। मगध की कथा, महाजनपद काल से शुरू होती है। राजधानी राजगृह थी, जिसे उठाकर हर्यक वंश उदायिन पाटलिपुत्र लाते हैं। सिंधु घाटी सभ्यता के हजार साल बाद, पहली बार, भारतीय इतिहास में फिर से नगरीकरण का नामोनिशान दिखता है। इसे नंद वंश के दौर में साम्राज्य का दर्जा मिलता है। उसे उखाड़कर मौर्य भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा साम्राज्य मौर्यवंश निर्मित करते हैं। इसके बाद शुंग और फिर गुप्तकाल में यह नगरी अपने वैभव का उत्कर्ष देखती है। यह आज से १६०० साल पुरानी बात है। इसके बाद पाटलिपुत्र अपने पराभव के दौर में प्रवेश कर गया। उसका इतिहास मिट्टी के नीचे दफन होता चला गया। बिहारियों, मगधियों का गौरव भी! अब तो उनकी पहचान पलटीमार नवाब से है, जो राजकाल के आखिरी दिनों में पाटलिपुत्र की पगड़ी दिल्लीशाही के पैरों में रखकर अपनी मनसबदारी बचाने की फिराक में लगा हुआ है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं तथा व्यंग्यात्मक लेखन में महारत रखते हैं।)

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