-शीतल अवस्थी
वट सावित्री व्रत अखंड सौभाग्य देने वाला और संतान की प्राप्ति में सहायक व्रत माना गया है। स्कंद पुराण तथा भविष्योत्तर पुराण के अनुसार, ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को यह व्रत करने का विधान है, वहीं निर्णयामृत आदि के अनुसार ज्येष्ठ मास की अमावस्या को व्रत करने की बात कही गई है। विष्णु उपासक इस व्रत को पूर्णिमा को करना ज्यादा हितकर मानते हैं। उत्तर हिंदुस्थान में ‘वट सावित्री’ या ‘वट अमावस्या’ ज्येष्ठ अमावस्या के दिन मनाई जाती है, पर महाराष्ट्र में इसे ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। तिथियों में भिन्नता होते हुए भी व्रत का उद्देश्य एक ही है। सौभाग्य की वृद्धि और पतिव्रत के संस्कारों को आत्मसात करना।
इस व्रत से संबंधित एक कथा है। मद्रदेश में अश्वपति नाम के धर्मात्मा राजा राज्य करते थे। उनके संतान नहीं थी। राजा ने संतान हेतु यज्ञ करवाया। कुछ समय बाद उन्हें एक कन्या की प्राप्ति हुई। उसका नाम उन्होंने सावित्री रखा। भारत खंड की प्रसिद्ध पतिव्रताओं में सावित्री को आदर्श माना गया है। वह एक राजकन्या थीं। विवाह योग्य होने पर सावित्री को वर खोजने के लिए कहा गया तो उन्होंने द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान का पति रूप में वरण किया। यह बात जब महर्षि नारद को ज्ञात हुई तो वे राजा अश्वपति के पास पहुंचे और उन्हें बताया कि सत्यवान अल्पायु हैं। एक वर्ष बाद ही उनकी मृत्यु हो जाएगी। नारदजी की बात सुनकर राजा ने अपनी पुत्री सावित्री को समझाया, पर सावित्री, सत्यवान को ही पति रूप में पाने के लिए अडिग रहीं। सावित्री के दृढ़ रहने पर आखिर राजा अश्वपति ने सावित्री और सत्यवान का विवाह करा दिया। विवाहोपरांत सावित्री सास-ससुर और पति की सेवा में लगी रहीं। समय बीतता गया। नारदजी के बताएनुसार सत्यवान की मृत्यु के निर्धारित दिन सावित्री भी सत्यवान के साथ वन में गई थीं। वन में सत्यवान ज्योंहि पेड़ पर चढ़ने लगा, उसके सिर में असहनीय पीड़ा होने लगी। वह सावित्री की गोद में अपना सिर रखकर लेट गया और अचेत हो गया। थोड़ी देर बाद सावित्री ने देखा कि अनेक दूतों के साथ हाथ में पाश लिए यमराज वहां खड़े हैं। भैंसे पर सवार होकर यमराज सत्यवान के प्राण लेने आए थे। यमराज सत्यवान के अंगुप्रमाण जीव को लेकर दक्षिण दिशा की ओर चल दिए। सावित्री ने उन्हें पहचाना लिया और उनसे विनय की कि आप मेरे पति के प्राण न लें। यम ने मना कर दिया, मगर सावित्री वापस नहीं लौटीं। उन्होंने मृत्यु के देवता यमराज के साथ तीन दिनों तक शास्त्र चर्चा की। इस अवधि में उनका व्रत था। इस दौरान वह वटवृक्ष के नीचे बैठी थीं। इस चर्चा के द्वारा अपने ज्ञान से उन्होंने यमराज का मन जीत लिया। इससे प्रसन्न होकर यमराज ने उनके पति सत्यवान के प्राण लौटा दिए। आखिर सावित्री के पतिव्रत धर्म से प्रसन्न होकर यमराज ने वर रूप में अंधे सास-ससुर की सेवा में आंखें दीं और सावित्री को सौ पुत्र होने का आशीर्वाद दिया और सत्यवान के प्राणों को छोड़ दिया। वट पूजा से जुड़ी इस धार्मिक मान्यता के अनुसार ही तभी से महिलाएं इस दिन को पूजती हैं।
ऐसी मान्यता है कि इस दिन वट वृक्ष की परिक्रमा करने पर ब्रह्मा, विष्णु और महेश, सुहागिनों को सदा सौभाग्यवती रहने का वरदान देते हैं। वट देववृक्ष है। देवी सावित्री भी वट वृक्ष में रहती हैं। हिंदुस्थानी संस्कृति में वट सावित्री एक ऐसा व्रत है, जिसे संपन्न कर एक हिंदुस्थानी नारी ने यमराज को भी अपने नियम बदलने को विवश कर दिया था। इस व्रत में महिलाएं वट वृक्ष की पूजा करती हैं, सती सावित्री की कथा सुनने व वाचन करने से सौभाग्यवती महिलाओं की अखंड सौभाग्य की कामना पूरी होती है। वट सावित्री व्रत में ‘वट’ और ‘सावित्री’ दोनों का विशिष्ट महत्व माना गया है। पीपल की तरह वट या बरगद के पेड़ का भी विशेष महत्व है। पाराशर मुनि के अनुसार, ‘वट मूले तोपवासा’ ऐसा कहा गया है। इसके नीचे बैठकर पूजन, व्रत कथा आदि सुनने से मनोकामना पूरी होती है। संभव है वनगमन में ज्येष्ठ मास की तपती धूप से रक्षा के लिए भी वट के नीचे पूजा की जाती रही हो और बाद में यह धार्मिक परंपरा के रूप में विकसित हो गई हो। इस व्रत का उद्देश्य पति के सुख-दुःख में सहभागी होना, उसे संकट से बचाने के लिए प्रत्यक्ष ‘काल’ को भी चुनौती देने की सिद्धता रखना, उसका साथ न छोड़ना एवं दोनों का जीवन सफल बनाना है। सावित्री में ये सभी गुण थे। सावित्री अत्यंत तेजस्वी तथा दृढ़निश्चयी थीं। राजकन्या होते हुए भी सावित्री ने दरिद्र एवं अल्पायु सत्यवान को पति के रूप में अपनाया तथा उनकी मृत्यु होने पर यमराज से शास्त्रचर्चा कर उन्होंने अपने पति के लिए जीवनदान प्राप्त किया था। जीवन में यशस्वी होने के लिए सावित्री के समान सभी सद्गुणों को आत्मसात करना ही वास्तविक अर्थों में वट सावित्री व्रत का पालन करना है।