मुख्यपृष्ठनए समाचारकाहें बिसरा गांव: कलब्बास का नहावन और खिचड़ी

काहें बिसरा गांव: कलब्बास का नहावन और खिचड़ी

पंकज तिवारी

महीना माघ का था। घाम कहीं ढुका गया था। ठंड भौंका अस मुंह बाए खड़ी थी। सुरसुरी हवा हांड़ कंपाने को काफी थी। गांव से हर बार लोग कलब्बास करने जाते थे, ट्रैक्टर पर सामान भूसे की तरह ठूंसकर भरा जाता था। बल्टी, कपड़ा, ओढ़ना, बिस्तरा सब किनारे ही लटकाकर रखा जाता था। कलब्बासी को महीने भर घाट के किनारे ही टेंट में रहना होता था। दिन कब गुजर जाते थे किसी को पता भी नहीं चलता।
गांव के सभी बड़-बुजुर्ग मौका मिलते ही नहाने चले जाते और जिसका जिससे मन बैठता वहीं दो-चार दिन रुककर आते थे। सीधा-पिसान गठिया कर ले जाना रिवाज बन गया था। कलब्बास करनेवालों को लोगों का आना अच्छा लगता था, इसी बहाने हमेशा चहल-पहल बनी रहती थी। कुल मिलाकर, धाम में मन रमा रहता था। पूरे मेले में हमेशा भजन-कीर्तन चलता ही रहता था।

झूलन ददा भी बहुत चाहते थे कलब्बास करना पर बूढ़ा अकेले वैâसे निबाहेंगी महीना भर वहां। उनका चलना-फिरना भी भारी रहता है फिर सारा तामझाम वैâसे लपेट सकेंगी? सोचकर ददा पीछे हट जाते थे। पतोहिया से भी एक-दो बार कह चुके थे, पर उसे तो शहर हिता गया था। गांव काटने दौड़ता था। बेचारे ददा अंदर ही अंदर कलझ कर रह जाते थे।
कई बरिस बीत गए ददा नहीं जा पाए। इस बार किसी काम से पतोहू तीनों बच्चों सहित नइहर आई हुई थी। ददा की आंखें चमक उठी। इस बार गंगा जरूर नहा लेंगे हम लोग, सोचकर ददा नतियन से मिलने जा पहुंचे। खातिरदारी से मन प्रसन्न हो उठा। पतोहू नहावन जाने से दो दिन पहले घर आने को तैयार हो गई और महीने भर कलब्बास में साथ रहने को भी राजी हो गई थी। ददा गदेलन को साथ लिए झूमते हुए सुबह वाली बस से घर आ गए थे। दादी भी खूब खुश थी। दौड़-दौड़ कर तैयारी करने लगी थी। भुलेस्सर को भेजकर लाई-चिउड़ा भुजवा ली थी। खांड़-गुड़ तो ददा के यहां इफराद ही था। ढू़ंढी, तिलवा, लेड़ुआ सब कुछ बनकर तैयार हो गया था। सिल्थापुर वाली काकी आकर दादी की मदद करवा गई थीं। अपने कहे समय पर पतोहू भी आ गई। पुआल से गोनरा, बैठने को बीड़ा, लकड़ियों के टुकडों के गट्ठर के साथ ही महीने भर खाने-पीने के लिए राशन, चना-चबैना भी बांध लिया गया था। शाम का इंतजार था कि सामान लिए निकल जाना था। करीब दो बजे दादी दौड़ती हुई आई।
‘कहो सुनत् हयऽ।’
‘का भऽ हो बूढ़ा?’
‘बुधई के बेटवा पैदा भऽ।’
‘अरे, ई तऽ बड़ी खुशी के बात हऽ। मिठाई बंटवावऽ, आखिर खानदान तऽ अपनई हउ।’
‘हां, मिठइया तऽ बटबइ करे पर कलब्बसवा… अब कइसे जवाए?’
‘अरे हां बूढ़ा, ई तऽ धोखा होइगऽ। जाइदऽ जब गंगा माई बोलइहीं तबइ चलाए। साल-दुइ साल अउर सही।’

दिन बीता खिचड़ी की पूर्वसंध्या पर तीनों बच्चे सिर के पास ही कपड़ा रखकर सोए। रात को जल्दी ही उठकर नहाने की होड़ मची थी। तीनों सो गए, सुबह आंख खुली करीब छह बजे उधर गोलू, मंगरू, ढकेलू ओनके ददा तीन ही बजे नहा-धोकर तैयार हो गए थे। खिचड़ी छूकर दाना चबाते हुए पूरे गांव में घूम-घूम कर अपने जल्दी उठने की सूचना पहुंचा रहे थे। दादी जल्दी ही उठ गई थी पर ठंड में बच्चों को उठाने की हिम्मत नहीं हुई। हारे हुए तीनों बच्चे दादी को कोसे जा रहे थे अगर आप उठाती तो हम भी जीत जाते।
‘जा बचवा अब नहाइ लऽ अबइ देर नाइ भइ बा।’

तीनों बारी-बारी नहाते और कांपते हुए भंउकी भर दाना ले कउड़ा के पास बैठकर हूं… हूं… करते हुए ताप रहे थे। बाहर पहले हम, पहले हम कि धुन लगी हुई थी। बच्चे झूठ पर झूठ बोले जा रहे थे कोई पांच बजे उठा था तो कोई नहाकर फिर सोने की बात कर रहा था। झूठ के पुलिंदे जोर-जोर से उछाले जा रहे थे।
(लेखक बखार कला पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)

अन्य समाचार