मुख्यपृष्ठस्तंभकाहें बिसरा गांव : फागुन में गांव और रंग

काहें बिसरा गांव : फागुन में गांव और रंग

पंकज तिवारी

‘होली आई रे कन्हाई, होली आई रे… रंगों का साथ लाई रे…!’ चारों तरफ रंग, खुशियों और गुझियों की बात चल रही थी। मौसम में बदलाव मन को सुकून पहुंचाने लगा था। लोग अब घरों से निकल कर, अलाव से पीछा छुड़ाकर बाहर धूप और छांव से खेलने लगे थे। नाद-पानी में अब मन रमने लगा था। पेड़-पौधे भी पतझड़ के प्रहार से उबर चुके थे। बगीचों में बदर-बदर महुआ चूकर गिरने लगा था, महक दूऽर तक फैलने लगी थी। पेड़ के नीचे महुए का बिस्तर लगा हो जैसे। जिसे बीनने के लिए भोर से ही लोग टूटने लगे थे। अन्हियार मोहे उठकर महुआ बीनने में माई, काकी का कोई जवाब नहीं था। गुलुगुला, लप्सी, लाटा, ढोकवा और घुघुरी का आनंद ही अलग है, जो महुए से बनता है। चना, मटर, चपटई खेतों से उठकर दरवाजों पर आने लगे थे जिसके लिए ददा, बाबू, कका अपने नाती-पोतों को भोरे-भोरे ही उठाने लगते थे। बच्चों को सुबह उठना इतना भारी होता था कि पूछिए ही मत। पर काम है करना तो पड़ेगा ही। अनाजों के दंवाई, कुटाई, पिटाई के बाद चादरों से ओसाने का काम भी जोर पर था।
आम के नए पत्ते धूप के सामने आने पर अलग तरीके से ही रंग बिखेरने लगे थे, बच्चे पत्तों से खूब खेलते थे, जबकि बौर पूरे पेड़ों को ढकने लगा था। हरे रंग पर गोभिया रंग भारी पड़ने लगा था। जल्द ही आम की चटनी खाने को मिलनेवाली थी। बंसवारी, बगीचे, खेत-खलिहानों में कहीं हरियरी बढ़ रही थी तो कहीं वीरानियां। लोग काम-धाम में व्यस्त रहने लगे थे। गोरू-बछरुओं का भी मन अब हरियराने लगा था। हां, रात को गोरुआरी में गोबर-कीचा से परेशानी ज्यादा बढ़ जाती थी, जिसमें राख वगैरह डालकर सही करने का प्रयास होता पर समस्या तो समस्या ही थी। नीम, जामुन के दातून का बोलबाला था, ब्रश मंजन कोई नहीं पूछता था। बुआ, काकी भोरे-भोरे बोझन कपड़ा बांधकर तारा पर पहुंच जाती थीं जहां घंटों कपड़ों के रेहियाने और फरियाने का काम होता था। कपड़े चमक उठते थे तब गांव में साबुन बड़ी महंगी वस्तु हुआ करती थी। बच्चे दिन-दिनभर तारा में खूब नहाने लगे थे। तारा के चारों तरफ खेतों में गाय, भैंस चरती रहती थीं।
बच्चे पिचकारी भर-भर कर गांव में लोगों पर डालने लगे थे। लोग ऊपर से गुस्साते थे पर अंदर से चाह होती थी कि रंग मुझ पर भी डाला जाए। हफ्तों पहले से ही रंग, फाग, हुड़दंग होने लगी थी। लोग होली वाले कपड़े पहनकर घूमने लगे थे। भगेलू ददा थे, जिन्हें रंग खेलना नहीं जमता था। लाठी लिए दौड़ा लेते थे अगर कोई उन पर रंग डाल दिया तो, हर साल गुस्सा करते थे ददा पर संयोग देखिए रंग उन पर ही सबसे ज्यादा पड़ता था। चिढ़ने वालों को चिढ़ाया भी खूब जाता है। ददा के साथ भी कुछ ऐसा ही था। दादी लाख समझातीं ‘कि जाइ दऽ खीझा मत करऽ त केउ परेशान न करेऽ’ मगर ददा सुनते कहां थे। हां, होली के दिन जब कहीं आराम से बैठे रहा करते थे ददा और पीछे से आकर रंग भरी बल्टी पलटा कर भाग लेती थी बड़की काकी तब कुछ नहीं बोल पाते थे ददा, उल्टा मुस्कुरा कर रह जाते थे। पिछली बार तो गजब ही हो गया था। होली के एक दिन पहले किचहिया होली का रिवाज है गांव में, बच्चे ज्यादा मनाते हैं इसे। ददा सुबह से ही घर बंद किए अंदर हो लिए थे, घर तो पक्का था पर उसमें किनारे-किनारे र्इंटों का खांचा बना हुआ था जो सीढ़ी के रूप में भी काम कर जाती थी। मंगरू उसी खांचे के सहारे छत पर चढ़ गए और अंदर से दरवाजा खोल दिए। लोग भीतर जाकर ददा से कीचड़ वाली होली जीभर कर खेल आए। बेचारे ददा खूब छटपटाए, खूब गरियाए पर अगले दिन सबसे पहले फगुआ अपने यहां वही करवाए। जहां ढोल-मंजीरे के साथ ही फागुन के रंग-रंग के गीत गाए जाने लगे थे। रसभंगा, गोझिया सब के सिर चढ़कर बोल रहा था। झूमना, नाचना अति आनंदम वाला हाल हो गया था। फागुन में रंग, भंग और फगुआ का मजा सभी के सिर चढ़कर बोलता है। पूरा गांव महीने भर पूरे उत्साह में उत्सव मना रहा होता है।
(लेखक बखार कला पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)

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