मुख्यपृष्ठस्तंभकाहें बिसरा गांव : ददा और झटके से टूटा ट्रांजिस्टर

काहें बिसरा गांव : ददा और झटके से टूटा ट्रांजिस्टर

पंकज तिवारी

कका का मुंह बना देख झटके में जोर से हंस पड़ी काकी और-
‘बरसत बा घनघोर बदरवा, पियऊ धान लगउतऽ होऽ…’
हाथ में थाली और छोटी बाल्टी लिए काकी भी गाने लगी थीं और कका भी साथ निभाने लगे थे। चारों तरफ अपने-अपने खेत में काम में लगे लोग खड़े होकर देखने लगे थे। कुछ लोग तो कका के पास पहुंचकर नाचने भी लगे थे।
माहौल पूरा उत्सवमयी सा हो गया था। कीचा से भरा खेत, खेत में छपा-छप मिट्टी से सने लोग। जैसे बच्चों का कोई खेल हो रहा हो और थमने का नाम ही नहीं ले रहा हो कि अचानक से काकी की निगाह दूर से आते ददा पर पड़ गई। जल्दी से सभी को शांत कराते हुए काकी अपने साथ लाई गुड़ और दाना सभी लोगों को देने लगीं। पहले से रखी बाल्टी में पानी था, सभी लोग हाथ धुलकर मिल-बांटकर खाने लगे थे। ददा अपने हिस्से का दाना लिए बगल पीपल के नीचे जा बैठे और ट्रांजिस्टर बजाकर ‘परदेसियों से…’ गाना सुनने लगे और दाना चबाने लगे। रमई, लहकू दौड़कर अपने खेत से अपने लिए लाया चबैना भी काकी को ही दे दिए थे, ताकि काकी का चबैना कम ना पड़े। मिल-बांटकर खाने का मजा ही अलग है। कुछ देर बाद सभी आनंद के साथ अपने-अपने खेत में अपने काम पर लग गए थे। ददा फिर से बीयड़ पहुंचाने चले गए थे। काकी अब कका का हाथ बंटाने लगी थी। दोनों मिलकर बियड़ उखाड़ने लगे थे। गाने का काम अब दादी का था।
‘बरसऽ-बरसऽ बदरवा बरसऽ हो बरसऽ बरसऽ।
देखत बाटऽ धान लगत बाऽ धान लगत बाऽ
तरसत बा मनईऽ पानी केऽ बरसऽ बरसऽ’
साथे-साथे कका भी गाए जा रहे थे। कभी-कभी तो जवाबी गीत भी शुरू हो जा रहा था। दोनों रमे हुए अपने काम को आगे बढ़ाए जा रहे थे। अब दो लोगों के हो जाने से बीयड़ की बोझुली सैराने लगी थी। खूब सारी बोझिया इकट्ठी हो गई थी। ददा को अब जल्दी-जल्दी चक्कर लगाना पड़ रहा था। दोनों मगन मन गा ही रहे थे कि ददा जोर-शोर से चिल्लाते हुए भगे आ रहे थे। कुल मिलाकर, बयालिस किलो के बेचारे ददा जैसे ही मेड़ पर पहुंचे पातर मेड़ के चलते भहरा गए…। हाथ-पैर तो टूटते-टूटते बचा पर ट्रांजिस्टर नऽ बच सका। मेड़ अभी पिछले हफ्ते ददा ही कांट-छांट कर के पतला किए थे। कुछ लोग होते हैं जो हर साल थोड़ा-थोड़ा मेड़ काट-काट कर अपने खेत को सैरवाने का प्रयास करते हैं। गांव भर के लोग मेड़ कटवा बुलाते हैं ऐसे लोगों को। ददा भी इसी नाम से प्रसिद्ध थे, पर आज खुद के खोदे गड्ढे में गिर गए थे ददा। देखने वाले एक दो लोग पहले तो हंसे फिर उठाने के लिए दौड़े, पर तब तक ददा खुद से ही उठ खड़े हुए थे। खड़े होते ही चहक उठे ददा, ताकि किसी को दर्द का एहसास न हो पर पास ही बिखरे पड़े ट्रांजिस्टर की दशा देख ददा खुद को मायूस होने से नहीं रोक सके। आंसू नहीं आए बाकी दुख के सारे लक्षण नजर आ गए। ददा गिरने के बाद भूल ही गए कि मैं अभी कुछ देर पहले इतना तेज चिल्लाते हुए भाग क्यों रहा था? मिट्टी से सने ददा अब बहुत ही संभल-संभल कर अपने पैर रख रहे थे, ताकि बेटे और बहू को उनके गिरने का एहसास न हो सके। वाकई उन दोनों को अभी तक मालूम नहीं चल सका था। मुश्किल से दो पग ही बढ़ाए होंगे कि ददा की निगाह फिर वहीं पड़ गई, जिसकी वजह से ददा को भागना पड़ा था। कका के पीछे रखे बीयड़ के बोझिया को करियवा सांड़ खाए जा रहा था और कका तथा काकी को पता तक नहीं था। ‘अन्हरा बरे जाइ पंड़वा चबान जाइ’ वाली कहावत चरितार्थ होती साफ दिख रही थी। ददा फिर दौड़ पड़े पर अबकी बार दायां पैर नहीं उठ सका और ददा झटके में ही गिर पड़े।
(लेखक बखार कला पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)

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