मुख्यपृष्ठस्तंभकाहें बिसरा गांव : दुखियारी बुआ और उनका दुख

काहें बिसरा गांव : दुखियारी बुआ और उनका दुख

पंकज तिवारी

कल्लन बुआ को नइहर आए करीब तीन महीने बीत गए थे। झगड़ा करके आई थीं। सासू मां ने कह दिया था कि बहू मेरा तो घुटना पकड़ने लगा है, थोड़ा गाय-गोरू भी देख लिया करो। बस, इत्ती सी बात पर रात भर खाना नहीं खाई थीं बुआ और सबेर होते ही बक्सा लिए नइहर आ गई थीं। नइहर पहुंचते ही कलकत्ता, अपने पति को खत भेजने के लिए गांव भर ढूंढ़ने के बाद केवल भगेलू ही मिला जो खत लिख पाता था।
फुआ मचिया पर बैठकर बोले जा रही थीं और भगेलू जमीन पर आलथी-पालथी मारे लिख रहा था।
‘दुइ दिन पहिले गाइ बिदग गइ, गए लगावइ संझा।
अगले दिन से गटइ पड़ि गइन माइ तोहरे समझा।।
लिखु रे भगेलुआ भैया।
फुकनी लेइ-लेइ चूल्हा फूंकी, अउर बनाई खाना।
बूढ़ा दिनवा भरि जरि-जरि के केवल देथिन् ताना।।
लिखु रे भगेलुआ भैया।’
बड़ी लंबी-चौड़ी शिकायत लिखाने के बाद खत भेज दिया गया। बुआ ने लिखवा रखा था कि जब आप आएंगे तभी हम ससुरे चलेंगे नहीं तो नइहरे में ही पड़े रहेंगे। कम-से-कम जूड़े रोंआ चार रोटी खाने को तो मिल रही है। खुश थीं कि नइहरे में माई-बाबू के साथ खुशी से कुछ दिन रह लूंगी, पर आने के बाद एक हफ्ते ही बीता होगा कि बुआ को अपनी गलती का एहसास होना प्रारंभ हो गया था। बुआ भूल गई थीं कि घर में एक भौजाई भी थी। भौजाई रोज ओझाई करने लगी थी। दिन भर बर बर, बर बर लगी रहती थी, हुरमत उतारने पर उतारू हो गई थी। गोबर काढ़ना, उपरी पाथना, सबेरे-सबेरे खरंउचा लिए सफाई करना, दिन-ब-दिन एक-एक काम बढ़ता ही जा रहा था। झूलन ददा तो चाहते थे कि बिटिया हमारी सुकून से रहे, दादी से भी बिटिया की बेइज्जती देखी नहीं जा रही थी पर क्या करें। बहू जब से आई है किसी की एक नहीं चलती। शाम तीन बजे ही भैंस चराने का समय हो जाता था। भौजाई भैंस छोड़ देती थी। बेचारी बुआ को न चाहते हुए भी भैंस के पीछे-पीछे भागना पड़ता था। ऊसर, पाथर, ताल, तलैया अंधेरा होने तक फुआ को ऐसे ही भटकना पड़ रहा था। चार बजते ही बाकी लोग भी अपनी भैंस और गाय लिए चराने आ जाते थे। भैंस पर बैठा मंगरू कंधे पर डंडा धरे सभी हेतु मनोरंजन का साधन हुआ करता था। हमेशा जो भी मन में आता बकता और गाता रहता था। सही गलत की समझ उसे नहीं थी। मुनिया, कलुआ, ढकेलुआ सभी बुआ का खूब ध्यान रखते थे। बच्चों के आ जाने पर बुआ को भैंस हांकना नहीं पड़ता था, बल्कि बच्चे ही दौड़-दौड़ कर हांक आते थे। बुआ सभी बच्चों के साथ इस मेड़ से उस मेड़ घूमा करती थीं, मन करने पर सित्तोड़, गिल्ली-डंडा, भुंइधपक्की या फिर और भी खेल खेला करती थीं या कहा जा सकता है कि दुख के दलदल में खुशी ढूंढ़ने का प्रयास करती थीं, पर मन में कहीं कचोट तो था ही। परेशान थीं कि अभी तक खत का जवाब क्यों नहीं आया। बुआ घर वापस लौटना तो चाहती थीं पर कैसे? परेशान थीं। एक दिन झूलन ददा बेटी की तरफ से बहू को डांट दिए थे शाम तक किसी को खाना ही नहीं मिला।
शाम को बुआ बड़े ही दुखी मन से भैंस लिए चराने आ गई थीं कि अचानक मंगरू भागते हुए आया और गाने लगा-
‘बतावऽ फुआ ससुरे कहिया ले जाबू,
भउजी के ताना तूं कहिया ले खाबू,
बतावऽ फुआ…’
बुआ खदेड़ लेती हैं मंगरू को, मंगरू जोर से भागा आगे-आगे भैंस भागने लगी। बुआ भागते हुए मुख्य बाजार से आनेवाली सड़क पर पहुंच गर्इं। सामने फूफा एक झोला लिए पैदल ही चले आ रहे थे। बुआ लजा गई थीं। धार-धार रोने लगी थीं। गुबार गला फार बाहर आ गया था। फूफा घर पहुंचकर पानी पीये और बिना कुछ कहे बुआ को लिए वापस निकल गए।
(लेखक बखार कला पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)

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