मुख्यपृष्ठखबरेंकाहें बिसरा गांव : बगीचे का भूत, सनेही और ददा

काहें बिसरा गांव : बगीचे का भूत, सनेही और ददा

पंकज तिवारी

शीत के सितम से बचते हुए लोग ऋतुराज के आगोश में आ चुके थे। बसंत सभी को अपने रंग में रंग लिया था। भास्कर भी अब मुस्कराते हुए लालिमा के साथ खिला-खिला चेहरा लिए फूल-पत्तियों, गाय-बछरुओं, बच्चे, बड़े-बुजुर्गों आदि का स्वागत कर रहे थे। पतझड़ सा चेहरा जो ठंड से सूख चुका था, लोग जो महीनों से नहाए नहीं थे सब खुद को चमकाने और गमकाने में लगे हुए थे। सरसों, मटर, कनेर, नीम, जामुन सब हरी-भरी हो रही थीं, जैसे हरे-भरे कपड़ों में सजी कोई महिला अपने जूड़ों में पीयर-पीयर फूल लगाए गली-गली घूम रही हो। बसंती हवा के साथ पौधे कुछ ऐसे ही लहरा रहे थे जैसे किसी मदमस्त कर देनेवाले यात्रा पर थे। आम पर बौर लग चुका था कुछ तो बड़े भी हो गए थे। ददा अभी से खटोला लिए बगीचे में डेरा डाल लिए थे। पिछले साल से कहीं ज्यादा आम फलने की उम्मीद में ददा मन ही मन मगन हो रहे थे। अचार-खटाई, सिरका बनाने के सपने में ददा अभी से खोने लगे थे। बच्चों का झुंड भी उपद्रव करने को तैयार था। ढेला मार-मारकर आमों को तोड़ना और खदेड़े जाने पर दूसरों के घरों में ढुका जाना, साइकिल का टायर लिए डंडों से पीट-पीट कर गड़ारी चलाते पगडंडियों पर भागते हुए सरसों के फूलों पर प्रहार कर देना जैसे और भी शरारतों हेतु वो पहले से ही तैयार थे। सित्तोड़, भुंइधपकी, छुपन-छुपाई, गिल्ली-डंडा ये सभी खेल तो बस बहाने थे खेतों के आसपास फटकने के, ताकि इसी बहाने टिकोरों पर भी हाथ साफ कर दिया जाए। एक बच्चा बगीचे के पीछे की तरफ ददा से बात कर रहा होता तो इधर सामने बाकी बच्चे आम तोड़ रहे होते थे। इधर ददा को दाना-पानी लेकर आई दादी की निगाह सभी बच्चों पर पड़ गई। सभी को धीरे से दूर भगाते हुए तब ददा को आवाज देती थीं, ताकी बच्चे बच सकें पर देर से ही सही ददा को पता चल ही जाता था कि बच्चों ने हाथ साफ कर दिया है। बाकी समय में प्रेम भाव से रहनेवाले ददा आम के समय में बच्चों को खूब-खूब गरियाया करते थे। बच्चे भी इसे प्रसाद समझकर ग्रहण कर लेते, पर शरारत से बाज नहीं आते थे। ददा को परेशान करने का रोज नया-नया तरीका ढूंढ़ ही लिया जाता था। लाख बचाने के बाद भी दस-बीस आम रोज टूट ही जाता था।
एक रात कुछ अजीब हुआ। आंधी-तूफान पूरे उफान पर थी। छान-छप्पर उड़े जा रहे थे। गाय-गोरू घबरा-घबरा कर चिल्लाए जा रहे थे और उधर ददा थे कि उन्हें आम का ही डर सताए जा रहा था। लालटेम जराये उधर ही भागे। गोरख, लोलारख, सनेही सहित बच्चों का झुंड भी बगीचे की तरफ धावा बोल दिया था कि सनेही को बदमाशी सूझ गई। अपने कका की सफेद धोती पूरे बदन पर लपेटे बच्चों के साथ बगीचे में पहुंच गया। ददा दौड़-दौड़ कर आम बीने जा रहे थे कि हूऽऽऽ… करते झम्म से उनके आगे ही कूद गया सनेही। बेचारे ददा लालटेम-फालटेम फेंकते हुए गिरते-भहराते, हांफते सीधे घर पर ही रुके। दादी लगातार पूछती रहीं, पर ददा को जैसे सांप सूंघ गया था। डर के मारे आवाज ही नहीं निकल रही थी। बस एकटक दादी को ही निहारे जा रहे थे। दादी की भी बेचैनी लगातार बढ़ने लगी। बगीचे में बच्चे पूरी मस्ती के साथ खूब आम बीने और आराम से बांट-बूंट कर अपने घर चले गए। बेचारे ददा महीनों खटिया पर ही पड़े रहे। खूब ओझाई-सोखाई के बाद जाकर तबीयत कुछ ठीक हुई। उसके बाद से ददा आम के मोह से बाहर निकल चुके थे, बल्कि लोगों को बुला-बुला कर दो-चार आम पकड़ाने लगे थे। कभी-कभी तो आम भूज कर पन्ना भी बनाने लगे थे। लोगों को पिलाते भी थे‌। बच्चे भी अब तक ददा को खूब-खूब मानने लगे थे।
(लेखक ‘बखार कला’ पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)

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