मुख्यपृष्ठस्तंभशिलालेख : हम पर थोपा गया युद्ध

शिलालेख : हम पर थोपा गया युद्ध

हृदयनारायण दीक्षित
दुनिया अनेक युद्धों की गिरफ्त में है। कहीं युद्ध जारी है और कहीं वैश्विक तनाव के कारण युद्ध की संभावनाएं हैं। भारत में कश्मीर के पहलगाम में हृदय विदारक जिहादी हमला हुआ है। इसे युद्ध कहना ज्यादा उचित होगा। यह स्वतंत्र घटना नहीं है। इसके पहले भी अनेक ऐसे ही हमले हुए हैं। क्या मुंबई के ‘२६/११’ के नाम से चर्चित नवंबर, २००८ के हमले को केवल आतंकवादी घटना कहा जा सकता है? यह दरअसल, अपने ढंग के जिहादी युद्ध का ही रौद्र रूप है। इस्लामिक विचारधारा के अंतरराष्ट्रीय विद्वान प्रोफेसर डेनियल पाइप (इन दि पाथ ऑफ गॉड, पृष्ठ ४६) ने कहा था कि जिहाद एक अंतरराष्ट्रीय धारणा है। यह संसार के इंसानों को दो भागों में बांटती है। एक दारुल हरब, जहां इस्लाम का राज नहीं है। दूसरा दारुल इस्लाम, जहां इस्लामी राज्य है। जिहाद इन लोगों के मध्य निरंतर युद्ध की स्थिति है। इस्लामी चिंतन के विद्वान मौलाना मौदूदी कहते हैं, ‘दीन की स्थापना के मकसद से हुकूमत पर कब्जा करने के लिए युद्ध की इजाजत है।’ (इस्लामिक लॉ एंड कांस्टीट्यूशन, पृष्ठ १७७, खुर्शीद अहमद)
दरअसल, इस्लामी चिंतन में युद्ध एक अनिवार्य धारणा है। कुरान (२/२१६) में कहा गया है कि ‘तुम पर युद्ध अनिवार्य किया गया है।’ यह भी हिदायत है, ‘जो लोग अल्लाह के मार्ग में मारे जाएं, उन्हें मुर्दा न कहो, बल्कि वह जिंदा हैं। कुरान (८.७४) में कहा गया है, ‘जो अल्लाह के मार्ग में लड़ेगा, वह मारा जाए या विजयी हो, हम शीघ्र ही उसका बड़ा बदला देंगे। जिहादी युद्ध के लिए अपने जांबाज समर्थक तैयार करने के लिए ऐसी विचारधारा उपयोगी है। लगातार युद्ध की इस्लामी धारणा आतंकवादी समर्थक विचारकों के शोध का नतीजा नहीं है। इस्लामी विद्वानों के तमाम लेख और विचार दुनिया के चिंतनशील लोगों के लिए बेचैनी है। दुनिया को इस्लाम में शामिल करना उनका लक्ष्य है। जिहादी आतंकवाद व्यवस्थित युद्ध का हिस्सा है। भारतीय दर्शन में सत्य की विजय का आश्वासन है। ‘सत्यमेव जयते’ की घोषणा मुंडकोपनिषद में है। मगर जीवन में सत्य की विजय प्राय: नहीं दिखाई पड़ती। संसार में शक्ति की विजय ही दिखाई पड़ती है। इसे भारतीय विचार में ‘मत्स्य न्याय’ कहा गया है और यूरोप में ‘सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट।’ छोटी मछली बड़ी मछली खा जाती है। बड़ी मछली को मछुआरे पकड़ लेते हैं। वन में शेर बलवान है। वह वनराज है। छोटे जीवों को बड़े जीव खा जाते हैं। कठोपनिषद में कहा गया है कि आत्मतत्व का ज्ञान बलहीन को नहीं मिलता- नायेनात्मा बलहीन लाभ्यो। संसार कर्म क्षेत्र है। युद्ध क्षेत्र है। धर्म क्षेत्र है। शक्ति की विजय भौतिक अध्ययन के निष्कर्ष हैं। सारी दुनिया के इतिहास में युद्धों के किस्से हैं। पिता शाहजहां को औरंगजेब द्वारा पीने का पानी न उपलब्ध कराने की घटना महत्वपूर्ण है। परिवार में भाई द्वारा भाइयों की हत्या के उदाहरण भी तमाम हैं। क्या युद्ध मानव जाति का स्वभाव है?
भारतीय चिंतन में शक्ति का महत्व है। श्रीराम विश्व मानवता के मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। स्वाभाविक महानायक हैं। गीता में श्रीकृष्ण श्रेष्ठ विभूतियों का उल्लेख करते हैं। कहते हैं, ‘ऋतुओं में बसंत मैं हूं। नदियों में गंगा मैं हूं। वृक्षों में पीपल का वृक्ष मैं हूं। शस्त्रधारियों में शस्त्रधारी श्रीराम मैं ही हूं।’ श्रीराम के अनेक रूप हैं, लेकिन शस्त्रधारी श्रीराम की बात ही दूसरी है। भारतीय देव प्रतीकों में शस्त्रधारियों की संख्या कम नहीं है। परमवीर हनुमान वङ्काधारी हैं। परशुराम फरसा धारण करते हैं। ऋग्वेद में रुद्र बिजलियां गिराते हैं। दुर्गा देवी अनेक शस्त्र धारण करती हैं। श्रीकृष्ण सुदर्शन चक्र धारण करते हैं। वैदिक देवता इंद्र शस्त्र धारण करते हैं। भौतिकवादी दृष्टि से गीता का पूरा दर्शन युद्ध भूमि के तनाव की प्रेरणा है। अर्नाल्ड टायनबी ने ‘दि स्टडी ऑफ हिस्ट्री’ में सभ्यताओं के जन्म की परिस्थितियों का विवेचन किया है। उन परिस्थितियों का भी विवेचन है, जिनमें सभ्यताओं का पतन होता है। डॉ. राधाकृष्णन ने एक भाषण माला (१९२४) में कहा था कि ‘सभ्यता मनुष्यों द्वारा आसपास की परिस्थितियों के साथ कठिन संबंधों में तालमेल बिठाने का परिणाम होती है।’ टायनबी ने इस प्रक्रिया को ‘चुनौती और प्रतिभावन’ के ढंग की प्रक्रिया माना है। बदलती हुई परिस्थितियां समाजों के लिए चुनौती के रूप में सामने आती हैं और उनका सामना करने से भी सभ्यताओं का जन्म और विकास होता है।’ अपने आपको परिस्थितियों के अनुकूल ढालने के अनवरत प्रयत्न का नाम जीवन है। जब हम अपने आपको सफलतापूर्वक उनके अनुकूल ढाल लेते हैं, तब हम प्रगति कर रहे होते हैं और जब बर्बरता चुनौती देती है तो युद्ध अनिवार्य हो जाता है। इसी भाषण माला में डॉ. राधाकृष्णन ने कहा है कि ‘युद्ध अच्छे उद्देश्यों को पूरा करने के साधन हैं।’ यहां कुछ उद्धरण दिए जाते हैं जिनसे यह बात स्पष्ट हो जाएगी। नीत्शे का कथन है, ‘जो राष्ट्र दुर्बल और दयनीय होते जा रहे हैं, उनके लिए युद्ध को औषधि के रूप में सुझाया जा सकता है।’ उसने कहा, ‘पुरुषों को युद्ध का प्रशिक्षण दिया जाए। बाकी सब बातें बेहूदा हैं।’ यदि उद्देश्य अच्छा हो तो उसके कारण युद्ध तक को भला समझा जा सकता है। अच्छे युद्ध के कारण किसी भी उद्देश्य को भला समझा जा सकता है।’ गीता में, ‘परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्-युद्ध का उद्देश्य है।’ रस्किन का कथन है, ‘महान राष्ट्रों ने अपने विचारों की सत्यता और सफलता को युद्धों में ही पहचाना है। युद्धों द्वारा वे राष्ट्र पनपे और शांति द्वारा नष्ट हो गए। युद्ध में उनका जन्म हुआ और शांति में वह मर गए।’ मोल्टेक ने कहा, ‘युद्ध परमात्मा के संसार का आंतरिक अंग है, जो मनुष्य के सर्वोत्तम गुणों का विकास करता है। स्थाई शांति केवल एक स्वप्न है और वह भी कोई सुंदर स्वप्न नहीं।’
बर्नहार्डी ने घोषणा की कि युद्ध एक प्राणी शास्त्रीय आवश्यकता है। यह मानव जाति के जीवन में एक अनिवार्य नियामक वस्तु है। युद्ध के अभाव में घटिया और चरित्रहीन जातियां स्वस्थ और सशक्त जातियों पर हावी हो जातीं और परिणामस्वरूप पतन ही होता। युद्ध नैतिकता का एक अनिवार्य उपकरण है। यदि स्थितियों के कारण आवश्यकता हो, तो युद्ध करवाना न केवल उचित है, अपितु राजनीतिज्ञों का नैतिक और राजनीतिक कर्तव्य भी है।’ ओसवाल्ड स्पैंगलर लिखता है, ‘युद्ध उच्चतर मानवीय अस्तित्व का शाश्वत रूप है। राष्ट्रों का अस्तित्व ही केवल युद्ध करने के लिए है।’ आर्थर कीथ ने १९३१ में ऐबर्डीन विश्वविद्यालय में भाषण देते हुए कहा था, ‘प्रकृति अपने मानवीय उद्यान को छंटाई द्वारा स्वस्थ बनाए रखती है। युद्ध उसकी कतरनी है। हम उसकी सेवाओं के बिना काम नहीं चला सकते।’ सभी राष्ट्रों में ऐसे व्यक्ति हुए हैं, जिन्होंने युद्ध को शक्ति प्रदान करनेवाले के रूप में स्तुति की है। कहा जाता है कि युद्ध से साहस, स्वाभिमान, निष्ठा और वीरता जैसे उच्च गुणों का विकास होता है, लेकिन भारत युद्ध प्रिय देश नहीं है। यह गांधी, बुद्ध, विवेकानंद व हेडगेवार का देश है। हम पर युद्ध थोपा गया है। अब युद्ध का कोई विकल्प नहीं। राष्ट्र मर्माहत है। भारत जवाबी कार्रवाई शुरू कर रहा है। विपक्ष ने पूरे सहयोग का आश्वासन दिया है। गीता के प्रवचन के अंत में संजय ने कहा, ‘यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर:। तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम। (गीता १८.७८)- जहां श्रीकृष्ण और धनुर्धर अर्जुन हैं, उसी पक्ष की विजय सुनिश्चित है।’
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के
पूर्व अध्यक्ष और वरिष्ठ साहित्यकार हैं।)

अन्य समाचार