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संडे स्तंभ : स्त्री शिक्षा के प्रवर्तक फुले दंपति

विमल मिश्र

अंधविश्वास व रूढ़ियों की बेड़ियां तोड़ने, अस्पृश्यता निवारण और सामाजिक सुधार आंदोलनों के लिए महाराष्ट्र में जिन्हें लंबा संघर्ष करना पड़ा, उनमें महात्मा ज्योतिराव गोविंदराव फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले का नाम पहला है। भारत में नारी शिक्षा का अग्रदूत यह दंपति ही है।

३ जनवरी, १८४८ को महात्मा ज्योतिराव गोविंदराव फुले ने पुणे के भिडेवाड़ा में विभिन्न जातियों की नौ छात्राओं के साथ भारत का पहला बालिका विद्यालय खोलकर भारत में स्त्री शिक्षा की नींव डाली थी। ऊंची जातियों के लोगों को जब यह पता चला तो बौखला उठे। उनके काम में बाधा डाली, फिर स्कूल बंद करवा देने की धमकी देने लगे। जब ज्योतिबा पर उनकी धमकियों का असर होता नहीं देखा तो वे उनके पिता के पास गए और धमकाया कि बेटे को रोक लो, नहीं तो तुम सभी को यहां से निकलना होगा। ज्योतिबा इस‌ स्थिति से पहले भी गुजर चुके थे, जब उन्हें गैर ब्राह्मण करार देकर उन्होंने उनकी स्कूली शिक्षा में बाधा डाली थी। ज्योतिबा ने तब भी पिता की बात नहीं मानी थी, इस बार भी नहीं मानी। वित्तीय कठिनाइयों के चलते ज्योतिबा को यह स्कूल बंद करना पड़ा, लेकिन १८५१ में उन्होंने चिपलूणकर वाडा में आठ लड़कियों के साथ कन्याशाला फिर से खोल दी। १८५२ तक उन्होंने एक के बाद एक तीन बालिका विद्यालयों की स्थापना कर डाली थी और १८५३ में अपने ही मकान में प्रौढ़ों के लिए भी रात्रि पाठशाला भी। १८५७ के पहले स्वतंत्रता संग्राम के बाद धन की कमी के कारण १८५८ तक ये स्कूल बंद हो गए, पर कुछ ही समय के भीतर वे कुल १८ नए विद्यालय खोलने में सफल रहे।
यही ज्यो‌तिबा कालांतर में महात्मा फुले कहलाए- पत्नी सावित्रीबाई के साथ देश में नि:शुल्क नारी शिक्षा के जनक। उनका मानना था कि शिक्षा की कमी और अज्ञानता ने ही सैकड़ों वर्षों की गुलामी को जन्म दिया है। इसे केवल वर्ग विशेष तक सीमित रखकर बहुजन समाज, खासकर महिलाओं के साथ इसी की वजह से शूद्रों जैसा व्यवहार किया जाता है और उन्हें जीवन भर दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं का सामना करना पड़ता है। यदि सभी के लिए शिक्षा के द्वार खोले जा सकें तो गुलामी के इन बंधनों को ही तोड़ा नहीं जा सकेगा, बल्कि उन्हें समाज में पुरुषों के बराबर का स्थान, सम्मान तथा सामाजिक प्रतिष्ठा भी मिलने का रास्ता भी खुल जाएगा।
विधवा और बाल आश्रम
बाल विवाह को लेकर फुले दंपति का कठोर निषेध था। यह वह काल था, जब अल्पवय लड़कियों को बड़ी उम्र के पुरुषों से शादी करने के लिए मजबूर किया जाता था। यह दंपति विधवा स्त्रियों के केश काटने का सख्त विरोधी था और विधवाओं के पुनर्विवाह का आग्रही। विधवा पुनर्विवाह अधिनियम १८५६ में पारित होने के बावजूद विधवाओं का पुनर्विवाह समाज को स्वीकार नहीं था। फुले दंपति ने विधवा आश्रम बनवाकर ऐसी महिलाओं को अधिकार तथा गुजारा भत्ता दिलाया। साथ ही विधवा विवाह की परंपरा शुरू की और ऐसा एक पुनर्विवाह पुणे में २५ दिसंबर, १८७३ को संपन्न कराया। समाज सुधारक न्यायमूर्ति महादेव गोविंद रानाडे ने पत्नी के निधन के बाद किसी विधवा से विवाह करने के स्थान पर किसी अल्पवयीन लड़की के साथ विवाह किया, तब उनके भी घर जाकर विरोध प्रदर्शन करने से नहीं चूके। फुले दंपत्ति को संतान सुख नहीं मिला। आत्महत्या करने जाती हुई एक विधवा ब्राह्मण महिला काशीबाई की घर में डिलिवरी करवा उन्होंने उसके बच्चे यशंवत को अपने दत्तक पुत्र के रूप में गोद लिया और पाल-पोस कर डॉक्टर बनाया।
२८ जनवरी, १८५३ को यौन शोषण की वजह से गर्भधारण करनेवाली गर्भवती बलात्‍कार पीड़ित स्रियों के लिए उन्होंने बाल हत्‍या प्रतिबंधक गृह की स्‍थापना की, जहां गुप्त और सुरक्षित रूप से उनकी प्रसूति की व्यवस्था की जाती थी। अगर ऐसी कुमारी माता या विधवा महिला ऐसे बच्चों का लालन-पालन नहीं कर सके, तो फुले दंपति ही यह जिम्मेदारी भी संभाला करते। उन्होंने उनकी अनाथ संतानों के लिए भी बालकाश्रम शुरू किए।
अछूतोद्धार
अछूतोद्धार के लिए फुले दंपति ने ऐसे लोगों के बच्चों को अपने घर पर रखकर पाला, पढ़ाया-लिखाया और वहां पानी की टंकी उनके लिए खोलने के साथ अपने घर के बाहर एक सामूहिक स्नानागार भी बनवाया। उन्होंने सभी जातियों के सहभोज करने की भी शुरुआत की। परिणामस्वरूप ‘स्वजनद्रोही’, ‘धर्मद्रोही’ और ‘राष्ट्रद्रोही’ जैसे शब्दों में निंदा कर उन्हें समाज और जाति से बहिष्कृत कर दिया गया। प्रतिशोध और संत्रास का यह दौर चलता गया। जब फुले दंपति अपनी कोशिशों से टस से मस नहीं हुआ, तब द्वेषियों ने साजिश रचकर दंपति को उन्हीं के घर से निकाल बाहर करा दिया।
ज्योतिबा ब्राह्मणों और अन्य उच्च जातियों की रूढ़िवादी मान्यताओं का विरोध करते हुए उन्हें ‘पाखंडी’ कहते थे। जाति प्रथा, जीर्ण व कालबाह्य रूढ़ियों व परंपराओं के विरोध में उनके द्वारा किए गए प्रखर विरोध के कारण इन लोगों ने ज्योतिबा को हिंदू और ब्राह्मण विरोधी करार दिया, लेकिन वे विरोधी थे ब्राह्मणी वृत्ति, प्रवृत्ति तथा अहं भाव के और वर्चस्ववादी सनातनी वृत्ति के। अपनी निष्ठा और नि:स्वार्थ सेवा भावना से धीरे-धीरे फुले दंपति ने सवर्ण समुदाय के अपने घोर विरोधियों को भी अपना बना लिया। एक दिन ऐसा आया, जब सवर्णों के उकसावे पर उनकी हत्या करने भेजे गए घोंडीराव नामदेव कुम्हार और रोडे खुद उनके शिष्य हो गए। विट्ठल बालवेकर, पं. मोरेश्वर शास्त्री, विष्णु पंत थत्ते, मानाजी डेनाले, सखाराम यशवंत परांजपे, दादोबा पांडुरंग तरबंडकर, अण्णा साहब चिपलूणकर, सदाशिवराव बल्लाल गोवंडे और बापुराव मांडे सरीखे उनके सबसे घनिष्ठ मित्र और सहयोगी ब्राह्मण उच्च जाति समुदायों से हुए। इनमें वाले चिपलूणकर, पं. धोंडीराम नामदेव, सखाराम परांजपे, भिडे और गोवंडे ने जहां स्कूल खोलने के लिए उन्हें जगह दी, वहीं मुस्लिम भाई उस्मान शेख ने जगह के साथ पढ़ाने के लिए अपनी बहन फातिमा शेख भी। अन्य शिक्षिका बनीं सगुणाबाई।
संघर्षपूर्ण जीवन
ज्योतिबा का जन्म पुणे में ११ अप्रैल, १८२७ को एक माली परिवार में हुआ था, जो कई पीढ़ी पहले सातारा के पास कटगुण से आकर फूलों के गजरे आदि बनाने का काम करने लगा था। इसलिए माली के काम में लगे ये लोग ‘फुले’ के नाम से जाने जाते थे। एक वर्ष की आयु में ही माता चिमणा बाई के निधन से ज्योतिबा का बचपन मां की प्रेम भरी छाया से वंचित हो गया। उनका लालन-पालन एक बाई ने किया। ज्योतिबा एक मराठी स्कूल में अध्ययन कर रहे थे, जो कुछ सनातनी ब्राह्मणों को उनके गैर-ब्राह्मण होने से पसंद नहीं था। उन्होंने उनके पिता के यह कहकर कान भर दिए कि अगर तुम्हारा बेटा शिक्षा प्राप्त करता है तो उसका मन खेती और बागवानी में नहीं लगेगा और वह असभ्य बन जाएगा। पर पिता की इच्छा के विरुद्ध उन्होंने स्कॉटिश मिशन स्कूल में दाखिला लेकर अंग्रेजी सीखना शुरू कर दिया था। कुछ समय एक मिशन स्कूल में ही अध्यापन के दौरान उन्होंने मिशनरी मरे मिशेल के निर्देशन में विभिन्न वैचारिक ग्रंथों और क्रांतियों का अध्ययन किया। साथ ही उस्ताद लहु जी सात्वे की उस्तादी में व्यायाम से अपनी देह को भी बलशाली बनाया। १८४० में १३ वर्ष की उम्र में उनका विवाह नौ वर्ष की सावित्रीबाई के साथ हुआ। ६१ वर्ष की आयु में ज्योतिबा लकवाग्रस्त हुए और ६३ वर्ष की आयु में १८९० में उनका निधन हो गया। उनका स्मारक पुणे के फुलेवाडा में बनाया गया है। (जारी)
(लेखक ‘नवभारत टाइम्स’ के पूर्व नगर
संपादक, वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं।)

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