पंकज तिवारी
‘क्या कहूं, कैसे कहूं, कितना कहूं?
क्यों शहर को भागता है गांव अब?’
आठ वर्षीय मोनू अपने हमउम्र गोलू के साथ दुआरे बैठा माटी को कुल्हड़ में भरकर, थपथपाकर उल्टे कुल्हड़ को वापस जमीन पर पटक कर कुल्हड़ ऊपर उठा ले रहा था। कमाल! हूबहू मिट्टी का कुल्हड़ जमीन पर बनकर तैयार, ऐसे ही कई कुल्हड़ों को बनाया था दोनों ने और हर बार खुशी दुगुनी हो जाती थी। चेहरे खिल उठते थे, आंखें चमक उठती थीं। सपने नन्हे पंजों में भी साकार हो रहे थे। दोनों खूब खुश थे। गांव में खुश होने के तमाम बहाने हैं जबकि शहर, कंक्रीटों का जंगल है जहां फ्लैटों में, चिड़ियाघर में झांकते, शेर, हिरन, भालू की भांति हम अपनी खिड़की और बाल्कनी से बेवस बस झांकते रहते हैं। बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं में पूरा का पूरा गांव समा जाता है और आश्चर्य कि समा जाती है सभी की चहलकदमी, खुशी से झूमती हुई तमाम इच्छाएं, जहां हम खुलकर कूद नहीं सकते कि नीचे वाले आ जाएंगे, खुलकर हंस नहीं सकते कि पड़ोसी आ जाएंगे, छत पर जाकर धूप नहीं सेंक सकते कि दरवाजा बंद है, नीचे एक साथ बैठने को पर्याप्त जगह नहीं है। ऐसे समय में मोनू और गोलू भरपूर आनंद गठिया रहे थे घर, परिवार, गांव-देश से बिलग। माटी से पूरे अरमानों का गांव बसा रहे थे और भरपूर जी रहे थे अपना बचपन। हवा झुर-झूर, झुर-झूर देह को सहलाते हुए चल रही थी, पेड़-पौधों के गहनें पत्तियां, बहती जल धारा में तैरते लोग, जस के तस हवा के साथ अपने स्थान पर ही तैर रहे थे या कह सकते हैं कि झूम रहे थे। कोयल मीठे-मीठे सुर में गा रही थी तो दूर कौवा भी अपना तान छेड़ने में पीछे नहीं था। बकरियों का झुंड पत्तियों को खाने, गिराने में मशगूल था तो रंभाती गायों के गले में बंधी घंटियों की गूंज पूरे गांव तक अपने होने का एहसास करा रही थीं, मन सुकून से भर जाता था। लोग मस्त-मगन अपने कामों में रमे हुए थे। बच्चों को मिट्टी से खेलता देख झूलन ददा पास आकर बैठ गए और हंसते हुए पूरे खेल में शामिल हो गए थे। बच्चे मस्त मगन हो उठे थे। शाम होते ही बरगद के नीचे महफिल जम गई थी, जहां ददा भी शामिल हो गए थे। मिट्टी के खेल से फारिग हो बच्चे भी आ गए थे साथ में मां और पिताजी भी थे। रोज एकाध घंटे सब साथ ही बैठते थे। शाम को, दोपहर में पूरे गांव से लोग आते और यहां आराम से गलचौरा में मस्त मगन रहा करते थे। भाई, चाचा, ताऊ, दादा यहां तक कि पूरा गांव एक परिवार की तरह रहता था। सब्जी की महक पड़ोसी के यहां से आ रही हो तो आराम से जाकर खाया जा सकता था। बरगद के नीचे जमी महफिल में गजब का माहौल हुआ करता था। नरेश जो सुबह ही गाय-भैंस लेकर चराने निकल जाते थे और शाम को लौटते थे, आज यहीं बरगद के पास ही थे। जानवर आराम से चरने में मशगूल थे तो कुछ भैंसें वहीं बगल के तालाब में पानी में बैठी आराम फरमा रही थीं। नरेश ने लोगों को बैठा देखा तो उनसे भी नहीं रहा गया। जानवरों को चरता छोड़कर वो भी मंडली में शामिल हो गए और हंसते हुए चर्चा के रुख को ही मोड़ दिए थे। अब वहां बस और बस गांव के लोगों की बुराई ही चालू थी। नरेश लगातार नोखई को भला-बुरा कहे जा रहे थे, नोखई से समस्या नरेश को बहुत पहले से थी। बेचारे नरेश का विवाह होते-होते रुक गया था नोखई की वजह से, ऐसा नरेश का मानना था। हालांकि, कहानी कुछ और थी, फिर कभी। लगातार बुराई के दौर में हंसी का डोज बढ़ ही रहा था कि नोखई की बहू आ गई और नरेश के पीछे धीरे से खड़ी हो गई। बेचारे नरेश इस बात से अनभिज्ञ बस अपने प्रवाह में बहते रहे, वहां मौजूद लोग इशारे में बताना भी चाहे कि भैया बस करिए, पीछे देखने का इशारा भी हुआ पर कहां मानने वाले थे नरेश। अब तक गुस्से में एकदम लाल हो गई थी नोखई बहू। बगल पड़ा पत्थर उठाकर टूट पड़ी नरेश पर। बेचारे भागते-भागते किसी तरीके से जान छुड़ाए और दुबारा किसी की बुराई न करने की कसमें खाईं सो अलग।
(लेखक बखार कला पत्रिका के संपादक एवं कवि, चित्रकार, कला समीक्षक हैं)