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बेबाक- दांव-प्रति दांव और चुनावी घाव!

अनिल तिवारी, मुंबई

झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी के साथ ही यह तो तय हो चुका था कि केंद्र सरकार अब पूरी तरह से चुनावी मोड में आ गई है। बिहार में सत्ता पलट और महाराष्ट्र में भारी राजनीतिक तोड़फोड़ ने रही बची शंकाओं पर भी विराम लगा दिया। स्पष्ट कर दिया है कि भारतीय जनता पार्टी हर हाल में केंद्र की सत्ता में वापसी चाहती है, उससे कम पर उसे कुछ भी मंजूर नहीं होगा। पिछले दो- ढाई वर्षों से जारी सारी कवायदें उसी का हिस्सा कही जा सकती हैं। परंतु जैसे हर क्रिया की समान प्रतिक्रिया होती है, वैसे ही राजनीति में भी हर दांव का उपयुक्त प्रति दांव भी होता है। आज की सत्ता शायद उसे भूल रही है। जिसके परिणाम उसके लिए घातक भी हो सकते हैं।
आमतौर पर लोक-लुभावन परियोजनाओं का लोकार्पण और शीर्ष सियासी नेताओं की सभाओं से कयास लगाए जाते थे कि चुनाव सिर पर हैं, परंतु हाल के वर्षों में हालात बदले हैं। चुनाव का ट्रेंड बदला है। २०१४ के बाद देश में गुजरात का राजनीतिक मॉडल लागू किया गया। २०१९ के बाद उसे और विस्तार दिया गया। अब २०२४ के चुनाव से पहले ईडी, सीबीआई और आईटी का अचानक से सक्रिय हो जाना, बड़े विपक्षी नेताओं की आनन-फानन में गिरफ्तारियां होना, शीर्ष विरोधी नेताओं का सत्ता पक्ष में छलांग लगाना, इत्यादि संकेत देता है कि विपक्ष चुनावी मोड में हो न हो, सरकार चुनावी मोड में आ चुकी है। हर हाल में जीत वाले चुनावी मोड में। हाल के दिनों में सरकार ने ऐसे कई दांव खेले भी हैं जो साबित करते हैं कि वह शत-प्रतिशत चुनावी गणित और गुणा-भाग कर चुकी है। गिरफ्तारियां तो उसका केवल एक पक्ष मात्र हैं। उसके तरकश में अभी कई तीर हैं।
जहां तक दक्षिण के राज्यों का सवाल है तो वहां भी साम- दाम-दंड-भेद का हथियार इस्तेमाल हो रहा है। चंद्रबाबू नायडू झांसे में आ ही चुके हैं। वाईएसआर कांग्रेस की काट ढूंढ़ ही ली गई है। बीआरएस बैकफुट पर है। सोरेन का काम तो हो गया है। अब जैसी कि संभावना जताई जा रही है, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का नंबर लग सकता है। उन्हें ईडी पहले ही कई समन दे चुकी है। मनीष सिसोदिया, संजय सिंह और सत्येंद्र जैन जैसे वरिष्ठ पार्टी नेता पहले ही सलाखों में हैं। केजरीवाल का दावा है कि यह सब कुछ उनकी पार्टी को लोकसभा चुनाव से रोकने के लिए किया जा रहा है। यदि वे चुनाव प्रचार तक बाहर रह गए तो भाजपा को कई सीटों का नुकसान तय है। लिहाजा, आम आदमी पार्टी के लिए लोकसभा चुनाव प्रचार कठिन किया जा रहा है। उसे तो यह भी पता नहीं कि उनकी पार्टी के अगले कौन से नेता का नंबर लगने वाला है। बकौल केजरीवाल, यह तो केंद्रीय एजेंसियों तक को पता नहीं होता। जैसा ऊपर से आदेश आता है, वैसा ही काम करने को वे बाध्य होती हैं।
अलबत्ता, यह तो तय है कि आम आदमी पार्टी की वजह से भाजपा को उत्तर के कई राज्यों में नुकसान उठाना पड़ सकता है। इसलिए भाजपा नहीं चाहेगी कि उत्तर की महत्वपूर्ण बेल्ट में केजरीवाल उसके लिए नकारात्मक साबित हों। वे गरीब-मध्यवर्गीय को अपनी लुभावनी प्रचार पद्धति से आकर्षित करना जानते हैं। इसलिए उन पर अंकुश लगना तो तय है। आरोप लग रहे हैं कि लंबे अरसे से केंद्रीय एजेंसियां यही काम कर रही हैं। उसी तरह, जिस तरह सोरेन की पार्टी के लिए किया जा रहा था। झारखंड मुक्ति मोर्चा के मामले में उन्हें सोरेन की गिरफ्तारी से आंशिक सफलता भले मिली हो पर चंपई सोरेन की सरकार बन जाने से उनके मंसूबे अधूरे ही रह गए। फ्लोर टेस्ट में विरोधियों को मुंह की खानी पड़ी। इसलिए शायद अब दिल्ली के मामले में वह जल्दबाजी न हो। वैसे भी किसान आंदोलन के फिर से भड़क उठने से राजनीतिक हालात बिगड़ चुके हैं। ऐसे में केजरीवाल को कितनी ढील देनी है और कब तक, यह तो आने वाले वक्त में ही तय होगा। संक्षेप में कहें तो झारखंड और दिल्ली की परिस्थितियों पर किसी तरह काबू करना केंद्र की मजबूरी है। सो, प्रयास जारी हैं। उत्तर प्रदेश में सियासी गणित बैठा लिया गया है। ओडिशा में नवीन पटनायक के साथ तालमेल हो चुका है।
जहां तक बिहार का मामला है तो वहां नीतिश बाबू की उलटी-पलटी से अब केंद्र को कोई फर्क नहीं पड़ता। नीतिश बाबू यदि बहुमत हार भी जाते, तब भी राष्ट्रपति शासन का विकल्प तो उसके पास था ही। दो-चार महीनों तक भी राज्य में राष्ट्रपति शासन रह जाता तो बिहार की हार को भाजपा बखूबी राजनीतिक व रणनीतिक जीत में बदल लेती। परंतु नीतिश बाबू ने बहुमत हासिल कर लिया। भाजपा को लग रहा है कि बाकी सभी कुछ उसके लिए कुशल मंगल है। पर असल में ऐसा है नहीं। किसान, गरीब और मध्यमवर्गीय सरकार से खासे नाराज हैं। जो किसी हाल में उसके पक्ष में नहीं जा सकते। केवल नेताओं को पक्ष में करके बाजी नहीं जीती जा सकती। असल समस्या का कारक किसान हैं। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बहुसंख्यक किसान, देश के ६०- ६५ करोड़ किसान। नए सिरे से शुरू हुआ किसान आंदोलन सरकार के सारे किए धरे पर पानी न फेर दे, यह डर भाजपा को निश्चित ही सता रहा होगा। इसलिए नुकसान भरपाई के लिए उसने महाराष्ट्र पर फोकस किया है। अशोक चव्हाण जैसे दिग्गज को खुद के साथ मिलाकर वह डैमेज कंट्रोल करना चाहती है, पर उसी के एक केंद्रीय मंत्री के लगातार उग्र बयान महाराष्ट्र के मराठाओं को नाराज कर रहे हैं, यहां की अस्मिता को ठेस पहुंचा रहे हैं। सो, भाजपा का खेला भी हो सकता है। उस पर जिस तादाद में भाजपा में विपक्षियों की इनकमिंग जारी है, उससे कर्तव्यनिष्ठ भाजपाइयों का रोष उबाल मारने लगा है। कई संघी पहले ही बैकफुट पर हैं। सरकार की नीतियों से नाराज हैं। पार्टी के चाल-चरित्र और चेहरे के विद्रूप होने से आहत हैं। जो किसी भी तरह से भाजपा के हित में जाता हुआ नजर नहीं आता। केवल विपक्षी पार्टियों के नेता, नाम और चिह्न चुराकर उसे कोई ज्यादा लाभ होता नजर नहीं आ रहा है।
भाजपा ने भले ही संघर्ष की राजनीति पर सहूलियत की राजनीति का मंत्र हावी करके क्षणिक सफलता हासिल कर ली हो पर दीर्घ काल में उनसे खुद ही का नुकसान किया है। उसने व उसके सत्ताधीशों ने साबित कर दिया है कि सत्ता ही शीर्ष उद्देश्य होना चाहिए। चाहे वह वैâसे ही क्यों न आए। दुर्भाग्य से सत्ता के आचरण को ही अब प्रजातांत्रिक राजनीति के आदर्श के रूप में माना जाने लगा है। पार्टी- पार्टी के अति महत्वाकांक्षी, घोटालेबाज और भ्रष्टाचारी नेता, इन्हीं पद चिह्नों पर चलकर अपनी ही पार्टी, अपनी ही विचारधारा से घात कर रहे हैं। वे मान चुके हैं कि वाकई सत्ता ही सर्वोपरि है। कल को यही कथित आदर्शवादी नेता जरूरत पड़ने पर किसी अन्य के पीछे खड़े नजर आएं तो आज की सत्ता को आश्चर्य नहीं करना चाहिए। क्योंकि सत्ता ही शीर्ष है। कल को यही एजेंसियां, यदि आज के राजा के पीछे न लग जाएं, तो आज की सत्ता को व्यथित नहीं होना चाहिए, क्योंकि सत्ता ही शीर्ष है। जो बोओगे वही काटोगे। आज दंड-भेद और षड्यंत्र के डर से जो आपके साथ हैं, कल बहुत संभव है कि आपके बहुमत से दूर रहने की परिस्थितियों में सबसे पहले विरोध का बिगुल वे ही बजाएं। आज जो दबाव तंत्र की वजह से एनडीए का हिस्सा हैं, कल जरूरत पर इंडिया का हिस्सा बनने में उन्हें देर नहीं लगेगी। सत्ता भी बखूबी इसे जानती होगी। तभी तो वह हार का एक प्रतिशत खतरा भी मोल नहीं लेना चाहती है। वह जानती है उसकी एक गलती उसे भारी पड़ेगी और फिर इसी दशक पुराने राजनीतिक दुष्चक्र की पुनरावृत्ति होगी। जो आज विपक्ष-विपक्ष के खिलाफ जारी है। इसीलिए शायद आज हिंदुस्थान में भी पाकिस्तानी राजनीति का मॉडल लागू किया जा रहा है। विपक्ष को मारने और मिटाने का मॉडल।

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