मुख्यपृष्ठस्तंभसम-सामयिक : मोदी सरकार की असफल विदेशनीति!

सम-सामयिक : मोदी सरकार की असफल विदेशनीति!

संजय श्रीवास्तव

भले ही प्रधानमंत्री ने शपथ ग्रहण समारोह के बाद विदेश मंत्री एस जयशंकर का कई पड़ोसी देशों के साथ द्विपक्षीय वार्ता से संकेत दिया कि वे ‘नेबरहुड फर्स्ट’ या पड़ोसी पहले की नीति पर तेजी से आगे बढेंगे लेकिन हमेशा की तरह उनकी कथनी और करनी में फर्क बना रहता है इसलिए सवाल उठने लाजिमी हैं। साल २०१४ में मोदी ने कहा था कि ‘नेबरहुड फर्स्ट’ पॉलिसी भारत की विदेशनीति का मूल है। निकटस्थ पड़ोसी देशों के साथ संबंध सुदृढ़ करना, क्षेत्रीय सहयोग बढ़ाना और साझा चिंताओं के समाधान को प्राथमिकता देते हुए उनके आर्थिक विकास तथा संवृद्धि में भागीदार बनने की प्रतिबद्धता वाली इस नीति के दस साल तक लागू रहने के बाद तमाम पड़ोसियों से हमारे रिश्ते उतने समरस नहीं हैं, जितनी अपेक्षा थी। पड़ोसी देशों में चीन के बढ़ते प्रभाव और दबदबे को कम करना, उन्हें उसके चंगुल से बचाते हुए अपने पाले में लेना इस नीति का एक उद्देश्य है। इन देशों में चीन का हस्तक्षेप भारत के नेबरहुड फर्स्ट को प्रभावी होने से रोकता है।
तीसरे कार्यकाल में सरकार को इस नीति के क्रियान्वयन की खामियों को दूर करते हुए इसे और असरदार बनाना होगा, बदली परिस्थितियों में परिवर्तित भू-राजनीतिक तथा रणनीतिक उद्देश्यों की प्राथमिकताओं में फेरबदल करना पड़ेगा। सरकार तीसरे कार्यकाल के पूरे होने तक देश को ग्लोबल साउथ का लीडर और प्रधानमंत्री को उसके प्रवक्ता के बतौर स्थापित कर भी ले लेकिन आधा दर्जन पड़ोसी देशों में से अधिकतर उसके साथ पूरी तरह से न हों तो बेशक यह स्थिति चिराग तले अंधेरा जैसी होगी। चीन के साथ तनावपूर्ण रिश्तों का एक सच यह भी है कि आज वह अमेरिका को पछाड़कर अब हमारा शीर्ष व्यापारिक भागीदार है। हम भारी घाटा सहकर भी उससे तकरीबन ११९ अरब डॉलर का कारोबार करते हैं। रक्षा रिश्तों में खटास के बावजूद वह चाहे ब्रिक्स हो या फिर शंघाई को-ऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन फोरम, कुछ अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत के साथ खड़ा हुआ। इससे यह उम्मीद पालना बेकार है कि इस कार्यकाल में चीन से रिश्ते सुधर सकते हैं; क्योंकि वह अपनी विस्तारवादी नीति नहीं त्यागने वाला।
मालदीव, नेपाल, पाकिस्तान, श्रीलंका जैसे पड़ोसियों में उसकी व्यापक पैठ को सीमित करना तभी संभव है, जब भारत भी उतनी ही आक्रामकता, कुटिलतापूर्ण भारी निवेश पर उतारू हो जो फिलहाल संभव नहीं। चीन के दबदबे को कम करने की कोशिश के दौरान इस तीसरे कार्यकाल में भारत-चीन संबंधों में तनाव बढ़ना तय है, देखना होगा कि इस आशंका को निर्मूल करने के लिए विदेश मंत्री क्या करते हैं। पाकिस्तान भारत विरोध के भद्दे प्रदर्शनों के साथ आतंकवादियों को सहयोग देने और इनसे निपटने में भारत से असहयोग जारी रखे हुए है। वह चीन के साथ ऐसी परियोजनाओं पर काम कर रहा है, जो भविष्य में घातक होंगी। गुलाम कश्मीर को भारत में मिलाने के सरकारी दावे के बाद दोनों देशों के संबंध संवाद और बातचीत तक पहुंचने की गुंजाइश फिलहाल नहीं दिखती। सरकार अपने समर्थकों के बीच राष्ट्रवाद सर्वोपरि की नीति प्रदर्शित करने के लिए पाकिस्तान पर अपना दबदबा दिखाते रहने का उपक्रम करती रहेगी।
नेबरहुड फर्स्ट की नीति वाली सरकार के समक्ष चीन और पाकिस्तान ही नहीं मालदीव, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका भी चुनौती पेश कर रहे हैं। बांग्लादेश में हिंदुओं पर भारी हमले की खबर शपथ ग्रहण के साथ ही आई थी। हम बांग्लादेश से ५४ नदियां साझा करते हैं, अब तक केवल गंगा और कुशियारा नदी जल संधि हुई है, तीस्ता और फेनी मुद्दे पर बात जारी है। तमाम जल बंटवारे लंबित हैं। बांग्लादेशियों की अवैध घुसपैठ, प्रवास, शरणार्थियों का मुद्दा भी दरपेश है। इसे रोकने के लिए बने राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर से बांग्लादेश चिंतित है। पर, इस कार्यकाल में सरकार की चिंता वहां चीनी प्रभाव का विस्तार है, जो देश की क्षेत्रीय स्थिति को कमजोर कर हमारी रणनीतिक आकांक्षाओं को बाधित करती है। तीसरे कार्यकाल में इसे रोकने के लिये सरकार को बहुत जोर लगाना होगा।
म्यांमार सीमा पर बाड़ बनाने की घोषणा के बाद उसका रुख भी भारत विरोधी और चीन मुखापेक्षी दिखा तो नेपाल जिसके साथ देश के सदियों पुराने सांस्कृतिक-राजनीतिक संबंध रहे हैं, चीन से करीबी के कारण पुरानी समरसता जाती रही है। आज नेपाल में करोड़ों के अप्रचलित भारतीय नोटों की वापसी के अलावा कई मुद्दों पर तकरार के साथ सीमा विवाद के साथ तल्खी बढ़ी है। प्रचंड से द्विपक्षीय वार्ता के बाद बदलाव के लिए कई कवायदें करनी होंगी। मालदीव में हमारी मौजूदगी हिंद महासागर में चौकसी के लिए रणनीतिक आवश्यकता है। मुहम्मद मुइज्जू शपथ ग्रहण में आएं, वार्ता में शामिल हों पर फिलवक्त वे पूरी तरह चीन के चंगुल में हैं, व्यवहारिक स्तर पर भारत के साथ नहीं हैं। इसके बावजूद मालदीव में अपनी उपस्थिति बनाए रखने का हर संभव प्रयास हमें करना होगा।
व्यस्त व्यावसायिक मार्ग वाला आर्थिक तौरपर तबाह श्रीलंका भारत चीन के बीच भू-राजनीतिक प्रतिद्वंदिता का केंद्र बन गया है। चीन अपने निवेश और कर्ज के जरिये श्रीलंका को चंगुल में ले चुका है, वह भारत के साथ खुलकर नहीं आ सकता। चीन की भूटान पर भी नजर है। सच यह है कि अधिकतर पड़ोसी देशों को अपना बनाने, उन्हें अपने प्रभाव में रखने तथा चीनी चंगुल से छुड़ाने के लिये भारत को खरबों का निवेश करने और सांस्कृतिक कूटनीति अपनाने के साथ कल्चर, कॉमर्स, कनेक्टीविटी वाला फार्मूला अपनाना होगा। बड़े भाई वाला दबदबा कायम करना होगा। तीसरे कार्यकाल में क्या सरकार नेबरहुड फर्स्ट नीति की सफलता हेतु इन सब कोशिशों के लिए तैयार दिखेगी? संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता के लिए सरकार पिछले दस साल से कोशिश कर रही है, मोदी को पांच और साल मिलने पर इस ओर प्रयत्न बढ़ेगा। पर, भारत अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया वाले क्वॉड संगठन का सदस्य है, जिसे प्रशांत महासागर में चीन के बढ़ते असर को रोकने वाली ताकत माना जाता है। क्या प्रधानमंत्री अगले पांच बरसों में इसके जरिए कुछ नया करते दिखेंगे?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार हैं)

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