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संपादकीय : सत्ता के नक्सलवादी!

असंवैधानिक मुख्यमंत्री शिंदे महोदय पूर्ण रूप से भाजपा की भाषा बोलने लगे हैं, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। भाजपा ने शिंदे को नकली शिवसेना का खिलौना दे दिया है। उसके साथ खेलते हुए शिंदे मुख्यमंत्री भाजपा के सुर में सुर मिला रहे हैं। मुख्यमंत्री शिंदे ने कहा कि राज्य में कुछ एनजीओ शहरी नक्सलवाद को बढ़ावा दे रहे हैं और इन शहरी नक्सलवादियों ने प्रधानमंत्री मोदी को हटाने के लिए काम किया। शिंदे का कहना है कि एनजीओ ने मोदी के खिलाफ प्रचार किया। शिंदे को इस बात की खुशी है कि फिर भी मोदी प्रधानमंत्री बन ही गए। शिंदे का कहना अप्रासंगिक है। शहरी नक्सलवाद की अवधारणा कुछ समय पहले भाजपा के उपजाऊ दिमाग से ही उभरी थी। नक्सलवाद सिर्फ देश के कुछ सुदूर इलाकों में ही नहीं है, बल्कि शहर के कुछ पढ़े-लिखे लोगों में भी नक्सलवाद घुस गया है, ऐसा प्रचार भाजपा ने शुरू किया। मुख्यमंत्री शिंदे वही कर रहे हैं। शहर के पढ़े-लिखे लोगों द्वारा मोदी की तानाशाही, लोकतंत्र विरोधी कृत्य, अमित शाह के आतंक राज के बारे में सवाल पूछते ही उन पर शहरी नक्सलवाद का ठप्पा लगाकर बदनाम करने की नीति पिछले दस वर्षों से लागू की जा रही है। मोदी के मनमाने शासन के खिलाफ अभियान चलाने वालों को नक्सली बताने की तकनीक भाजपा ने शुरू की। क्या अब शिंदे और उनके लोगों के खोखे शाही के खिलाफ बोलने वालों को शहरी नक्सली कहा जाएगा? शहरी नक्सलवाद का हौवा सरकारी एजेंसियों द्वारा तैयार किया जाता है। लोकसभा चुनाव से पहले बार-बार कहा गया कि महाराष्ट्र के पांच प्रमुख शहरों में हिंसक घटनाओं की नक्सलियों ने साजिश रची थी। पुलिस ने कहा कि गड़बड़ियां सरकार के खिलाफ असंतोष पैदा करने के लिए की जाएंगी, लेकिन वास्तव में महाराष्ट्र में चुनाव सुचारु रूप से हुए और जो भी गड़बड़ियां हुर्इं वे पुलिस और शासकों द्वारा की गर्इं। इसलिए शहरी नक्सलवाद का भूत अगर किसी की गर्दन पर बैठा है तो वह भाजपा का है। आनंद तेलतुंबडे, सुधा भारद्वाज, फादर स्टेन स्वामी जैसे कुछ पढ़े-लिखे लोगों को सरकार को उखाड़ फेंकने की साजिश रचने के आरोप में गिरफ्तार किया गया और वर्षों तक जेल में रखा गया। पुलिस ने यह कार्रवाई पुणे में ‘एल्गार’ सम्मेलन के मौके पर की। ब्रिटिश काल में हिंदुस्थानी जनता को सरकारी व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाने की आजादी थी, लेकिन अब आजाद भारत में ऐसा करने वालों को देशद्रोही माना जाता है। शहरी नक्सलियों ने मोदी के खिलाफ प्रचार किया यानी उन्होंने क्या किया? मोदी और उनके लोग ४०० सीटें जीतकर देश का संविधान बदलने जा रहे हैं। इसलिए मोदी की पराजय होनी चाहिए यदि स्वयं सेवी संस्थाओं की इस तरह से भूमिका रही तो उसमें उनकी क्या गलती थी? कई एनजीओ आदिवासी बस्तियों में, जंगलों में काम करते हैं। वे आदिवासियों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करते हैं, उन्हें लड़ने की ताकत देते हैं। क्या ऐसा करना अपराध है? झारखंड के जंगलों में पुलिस अत्याचार के खिलाफ आदिवासियों का नेतृत्व करने वाले पत्रकार रूपेश कुमार सिंह को चार साल के लिए शहरी नक्सली घोषित कर जेल में डाल दिया गया है। ये सभी लोग भले ही वामपंथी हो सकते हैं, लेकिन वामपंथियों ने कई राज्यों में लोकतांत्रिक तरीकों से चुनाव लड़कर जीत हासिल की है। जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में वामपंथियों का दबदबा है। इसलिए सभी छात्र संगठनों के लोगों पर भाजपा द्वारा नक्सली होने का आरोप लगाया जा रहा है। यही आरोप कन्हैया कुमार पर भी लगा, लेकिन कन्हैया कुमार संविधान के रक्षक के तौर पर लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव प्रक्रिया में शामिल हुए। यानी वह लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास रखते हैं। क्या ऐसा विश्वास मोदी, शाह, फडणवीस, शिंदे आदि लोगों का है? सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश असंवैधानिक सरकार के विरुद्ध होने के बावजूद इस शिंदे सरकार को जबरन जनता की छाती पर लादना, इस अतिवादी कृत्य को ही शहरी नक्सलवाद कहा जाना चाहिए। मोदी-शाह की जांच प्रणाली राजनीतिक विरोधियों को धमकाकर जबरन वसूली करती है और उन्हें दल बदलने के लिए मजबूर करती है, यह भी शहरी नक्सलवाद का एक हिस्सा है। इन लोगों ने राज्य में सरकार गिराने की साजिश रची। लेकिन मोदी की तानाशाही को जनता ने मतपेटी के जरिए उखाड़ फेंका, इसमें नक्सलवाद का मुद्दा कहां आता है? छत्तीसगढ़, झारखंड, आंध्र, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र के कुछ जिलों में नक्सलवाद मौजूद है, लेकिन यह नक्सलवाद सामाजिक-आर्थिक असमानता, बेरोजगारी और पुलिसिया अत्याचार से पैदा हुआ। मोदी, शाह, फडणवीस द्वारा सरकारी मशीनरी का उपयोग करके पैदा किए गए आतंकवाद और नक्सलवाद में कोई बड़ा अंतर नहीं है। फिलहाल इतना ही!

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