मुख्यपृष्ठस्तंभइस्लाम की बात : सीएए पर गरमाई सियासत

इस्लाम की बात : सीएए पर गरमाई सियासत

सैयद सलमान मुंबई

लोकसभा के चुनाव अप्रैल-मई में होने हैं। चुनावी वर्ष है सो शिगूफे छोड़ने का सिलसिला भी जारी है। जैसी कि उम्मीद थी, केंद्रीय गृह मंत्रालय ने नागरिक संशोधन कानून (सीएए) की अधिसूचना जारी कर दी है। अब इस नियम के तहत सरकार दिसंबर २०१४ तक तीन देशों के प्रताड़ित गैर-मुस्लिम प्रवासियों को नागरिकता देना शुरू कर देगी। केंद्र सरकार द्वारा कानून लागू किए जाने के बाद बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आए प्रताड़ित गैर-मुस्लिम प्रवासियों यानी हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, पारसी और ईसाइयों को इसका लाभ मिलना शुरू हो जाएगा। जब सीएए कानून पास हुआ था तब मुस्लिम समाज से जुड़े कई संगठनों ने जमकर हंगामा किया था। देश के कई हिस्सों में विरोध प्रदर्शन हुए। अब सीएए कानून लागू होने के बाद एक बार फिर मुस्लिम समाज और उनसे जुड़े कई संगठनों ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया है। कई मुस्लिम नेताओं की ओर से इस कानून के खिलाफ बयान आने शुरू हो गए हैं। मुस्लिम समाज का मानना है कि इस कानून से मुस्लिमों को बाहर रखना, समानता के अधिकारों का उल्लंघन है। इससे देश की एकता और अखंडता को नुकसान पहुंचेगा। मुस्लिम समाज को डर है कि सीएए के बहाने उन्हें प्रताड़ित किया जा सकता है।
गौरतलब है कि सीएए कानून दिसंबर २०१९ में पारित हुआ था और इसे राष्ट्रपति की मंजूरी भी मिल गई थी। सरकार ने कानून पास करा लिया था तो इसे कभी-न-कभी तो लागू करना ही था। लेकिन सरकार ने अभी तक कानून को जानबूझकर अधिसूचित नहीं किया था। अब विपक्ष कानून को मंजूरी देने की टाइमिंग पर सवाल उठा रहा है, जो उचित भी है। दरअसल, इस कानून का जितना मुस्लिम समाज की तरफ से विरोध होगा, सरकार या यूं कहा जाए कि भाजपा को फायदा ही होगा। इस बात को भाजपा जानती है और यही उसकी रणनीति भी है। अब तो मामला देश की सबसे बड़ी अदालत तक पहुंच गया है। सीएए अधिसूचना के क्रियान्वयन के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एआईएमएल की तरफ से याचिका दायर की गई है। इसके पीछे तर्क दिया गया है कि धार्मिक पहचान के आधार पर वर्गीकरण करना भारतीय संविधान के अनुच्छेद-१४ और धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों का उल्लंघन है। इसके अलावा, अधिनियम की संवैधानिकता को चुनौती देनेवाली सुप्रीम कोर्ट में लंबित लगभग २५० याचिकाओं पर अभी तक निर्णय नहीं लिया गया है। सरकार चलाने की भी एक नैतिकता होती है। इस नैतिकता के अनुसार, अगर मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है तो सरकार को सीएए कानून को अधिसूचित करने से बचना चाहिए था। लेकिन सरकार से नैतिकता की उम्मीद करना बेमानी है। पिछले दस सालों में अनैतिकता के जो कीर्तिमान स्थापित हुए हैं, उनकी मिसाल शायद ही कहीं और मिले।
आखिर वो कौन से कारण थे जिनकी वजह से सरकार ने ४ साल तक इस कानून को लागू करना जरूरी नहीं समझा? ध्रुवीकरण के लिहाज से यह मुद्दा चुनाव प्रचार के लिए सबसे मुफीद था। पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनाव में सीएए लागू करने का वादा भाजपा के लिए बड़ा चुनावी मुद्दा था। भाजपा की सोच है कि सीएए उसके हिंदू राष्ट्रवाद के एजेंडे को आगे बढ़ा सकता है और हिंदू मतदाताओं का पार्टी की ओर ध्रुवीकरण कर सकता है। मुसलमानों का विरोध इसमें और तड़का लगाएगा। विपक्ष भी जितना विरोध करेगा, भाजपा उतना प्रचार करेगी कि विपक्ष हिंदू विरोधी है और मुसलमानों को खुश करने के लिए इस कानून का विरोध किया जा रहा है। हालांकि, विपक्ष इस बात को ज्यादा जोरदार तरीके से उछाल सकती है कि तीन देशों के गैर-मुस्लिमों को यहां की नागरिकता देने पर जितना जोर सरकार दे रही है, उतना जोर विदेशों में जाकर बसने वालों को रोकने में क्यों नहीं लगा रही? मोदी सरकार के दो कार्यकालों में लगभग १४ लाख लोगों ने यहां की नागरिकता छोड़ी है और विदेशों में बसने को प्राथमिकता दी है। क्या सरकार से संतुष्ट व्यक्ति अपना देश छोड़कर कहीं अन्यत्र बसने की सोच भी सकता है? मुसलमानों को भी इस मुद्दे पर आक्रामकता से नहीं, हिकमत से काम लेना चाहिए। उनकी आक्रामकता ही भाजपा को खाद-पानी देती है। आक्रामकता से प्रचार तो भाजपा कर रही है। इससे समझ में आ जाना चाहिए कि उसके मन में सीएए का लाभ लेने की मंशा है। दूसरी पंक्ति के भाजपा नेताओं और पेड ट्रोलरों के लगातार दुष्प्रचार और भड़काऊ भाषणों की वजह से मुसलमानों में डर पैदा हो रहा है, लेकिन सच यह भी है कि इस देश का बड़ा वर्ग आज भी मुसलमानों के साथ खड़ा है। स्पष्ट है कि यह मुद्दा केवल देश की जनता को बांटने और मुख्य मुद्दों से भटकाने का सोचा-समझा प्रयास है।

सुप्रीम कोर्ट में एआईएमएल की तरफ से याचिका दायर की गई है। इसके पीछे तर्क दिया गया है कि धार्मिक पहचान के आधार पर वर्गीकरण करना भारतीय संविधान के अनुच्छेद-१४ और धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों का उल्लंघन है। इसके अलावा, अधिनियम की संवैधानिकता को चुनौती देनेवाली सुप्रीम कोर्ट में लंबित लगभग २५० याचिकाओं पर अभी तक निर्णय नहीं लिया गया है। सरकार चलाने की भी एक नैतिकता होती है। इस नैतिकता के अनुसार, अगर मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है तो सरकार को सीएए कानून को अधिसूचित करने से बचना चाहिए था। लेकिन सरकार से नैतिकता की उम्मीद करना बेमानी है। पिछले दस सालों में अनैतिकता के जो कीर्तिमान स्थापित हुए हैं, उनकी मिसाल शायद ही कहीं और मिले।
(लेखक मुंबई विश्वविद्यालय, गरवारे संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग में समन्वयक हैं। देश के प्रमुख प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)

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