विजय कपूर
अगर आपने ट्रेन के जनरल कंपार्टमेंट में कभी सफर किया है तो आपको अनुभव होगा कि उसमें बहुत भीड़ होती है, आदमी पर आदमी चढ़ा रहता है, पैर रखने की जगह नहीं होती है इसलिए जो उसमें सवार हो गए होते हैं, उनकी कोशिश होती है कि नए यात्री डिब्बे में प्रवेश न कर पाएं, लेकिन जब धक्कामुक्की करके कोई यात्री प्रवेश करने में सफल हो जाता है तो वह भी डिब्बे के अन्य यात्रियों के साथ मिलकर इस प्रयास में लग जाता है कि अब कोई अतिरिक्त मुसाफिर का इस डिब्बे में इजाफा न होने पाए। इसे ट्रेन के थर्ड क्लास कंपार्टमेंट की मानसिकता कहा जाता है। सुप्रीम कोर्ट की ७-न्यायाधीशों वाली खंडपीठ पर एकमात्र दलित न्यायाधीश बीआर गवई ने अनुसूचित जाति (एससी) व अनुसूचित जनजाति (एसटी) आरक्षण में उप-श्रेणियों का विरोध करने वालों की तुलना रेल के जनरल कंपार्टमेंट के मुसाफिरों से करते हुए कहा कि एससी व एसटी में जो गैर-बराबर हैं, उन्हें बराबर मानकर नहीं चला जा सकता।
न्यायाधीश गवई की इस बात से मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायाधीश विक्रमनाथ, न्यायाधीश पंकज मित्तल, न्यायाधीश मनोज मिश्रा व न्यायाधीश एससी शर्मा सहमत थे, जबकि न्यायाधीश बेला एम त्रिवेदी असहमत थीं। अत: सुप्रीम कोर्ट ने १ अगस्त २०२४ को पांच-सदस्यों वाली खंडपीठ के २००४ के ईवी चिन्नै: पैâसले (कि एससी सजातीय समूह है और उसमें उप-श्रेणिया नहीं हो सकतीं) को ६-१ के बहुमत से पलटते हुए अपने ऐतिहासिक निर्णय में राज्यों को यह अनुमति दी कि वह सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन व सरकारी नौकरियों में कम प्रतिनिधित्व की डिग्री के आधार पर अनुसूचित जाति समुदाय में जातियों की उप-श्रेणियां बना सकते हैं, यह सुनिश्चित करने के लिए कि १५ प्रतिशत एससी आरक्षण का हिस्सा उनमें जो पिछड़े हैं उनको मिले। लेकिन साथ ही सरकारों से यह भी कहा कि वह एससी व एसटी की मलाईदार परत को आरक्षण का लाभ उठाने से रोकने के लिए उचित क्राइटेरिया गठित करें।
इस पैâसले के साथ अपनी असहमति दर्ज कराते हुए न्यायाधीश बेला एम त्रिवेदी ने कहा कि अनुसूचित जातियां ‘सजातीय वर्ग हैं’ और उसमें ‘राज्यों द्वारा छेड़छाड़ नहीं की जा सकती’। लेकिन ध्यान से देखें तो न्यायाधीश गवई का यह कहना एकदम दुरुस्त है कि एससी/एसटी पैरेंट्स के जिन बच्चों ने आरक्षण का लाभ उठाते हुए उच्च पद हासिल कर लिए हैं और अब सामाजिक, आर्थिक व शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े नहीं हैं, उनकी तुलना शारीरिक श्रम करने वाले पैरेंट्स के बच्चों से नहीं की जा सकती। दोनों को एक ही पलड़े में रखने से संवैधानिक उद्देश्य असफल होता है। इस लिहाज से सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससी/एसटी के भीतर उप-श्रेणियों की अनुमति देना सही पैâसला है, लेकिन इससे एक नए राजनीतिक पतीले में जबरदस्त उबाल आ जाएगा। राज्य सरकारों को एससी व एसटी में मलाईदार परत (उन व्यक्तियों के बच्चे जो आरक्षण का लाभ उठा चुके हैं) की भी पहचान करनी है।
पहचान करने की इस एक्सरसाइज में दोहरा खतरा है- राजनीतिक स्ट्रेटेजी का भी और उन गुटों की सही पहचान का भी, जिनको वास्तव में सहारे की जरूरत है। अब तक तो देखने में यही आया है कि जो वर्ग राजनीतिक दृष्टि से असरदार है, बात उसी के पक्ष की अधिक हो जाती है। बहरहाल, कुल मिलाकर उप-श्रेणियां सकारात्मक कदम है। लेकिन दुर्भाग्य से आरक्षण सियासी वर्ग के लिए चुनावी अभियान में चलाया जाने वाला तीर बनकर रह गया है। इसके मुख्यत: दो नतीजे निकले हैं। एक जो संपन्न हैं, उन्होंने आरक्षण का अधिक लाभ उठाया है, जबकि कमजोरों को हाशिए पर धकेल दिया गया है। दो एससी/एसटी श्रेणियों का विस्तार हुआ है या वह अधिक झरझरी हो गई हैं। लगातार नए समूह जुड़ते जा रहे हैं। जो समुदाय भीड़भरी ओबीसी सूची के हाशिए पर है, वह अगर एससी सूची में आ जाता है, तो उसके लिए शिक्षा, स्कॉलरशिप व जॉब्स की बेहतर संभावना हो जाती है।
इस लचीलेपन से समुदायों को कूदते हुए और एससी/एसटी सूचियों को बढ़ते हुए देखा गया है। अगर ईमानदारी व प्रभावी ढंग से उप-श्रेणियां बनाई जाती हैं कि जो वास्तव में सामाजिक दृष्टि से अति पिछड़े हैं उनकी पहचान करके उन्हें शामिल किया जाए तो एससी/एसटी आरक्षण अधिक समावेशी हो जाएगा। पंजाब की ३२ प्रतिशत जनसंख्या एससी है। उसने उप-श्रेणी की आवश्यकता को १९७५ में ही महसूस कर लिया था और एससी आरक्षण का ५० प्रतिशत हिस्सा वाल्मीकियों व मजहबी सिखों के लिए रिजर्व कर दिया था। हरियाणा, आंध्रप्रदेश व तमिलनाडु ने भी पंजाब के नक्शेकदम पर चलने का प्रयास किया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के २००४ के फैसले ने उनकी कोशिशों पर पानी फेर दिया था, जिसे अब सुप्रीम कोर्ट की ही बड़ी बेंच ने पलट दिया है।
लेकिन इस पूरी कवायद का एक दूसरा पहलू भी है। आरक्षण का एक बहुत ही छोटा सा टुकड़ा सकारात्मक प्रयास का मूल विचार नहीं हो सकता। कोटा के भीतर कोटा कभी भी भेदभाव की महामारी का इलाज नहीं हो सकता और न ही निरंतर सिकुड़ते जॉब अवसरों का विकल्प बन सकता है। मसलन, जिन लोगों ने हाथ से मैला ढोना त्याग दिया था, उनका पुनर्वास आज भी बड़ी चुनौती बना हुआ है। स्कूल व कार्यस्थल पर भेदभाव को नीति के तौर पर संबोधित करना आज भी अंधी बंद गली में जाने जैसा ही है। आरक्षण की सीढ़ी से आए व्यक्ति के लिए विशेष निंदा आरक्षित रहती है। ‘कोटा-वालों’ को कॉलेजों व कार्यस्थलों पर ‘अपनाना’ बहुत बड़ी चुनौती है; जो दिन-रात भेदभाव अनुभव करते हैं, उनके दिलों से मालूम कीजिए कि अपमान के कितने घूंट पीने पड़ते हैं। सरकारी सेक्टर में जॉब्स निरंतर कम होते जा रहे हैं और प्राइवेट सेक्टर में जॉब्स पहुंच के बाहर होते जा रहे हैं। फिर जाति सर्टिफिकेट के घोटाले भी हैं।
एक किस्म की स्थिर जीविका के लिए जो हताशा है वह बार-बार आरक्षण की मांग में ही अभिव्यक्त होती है जैसे आरक्षण के अतिरिक्त समस्या का कोई समाधान ही नहीं है। यह सब पॉलिसी की नाकामी का परिणाम है, जिसे राजनीतिक दलों द्वारा सुप्रीम कोर्ट के पैâसले का स्वागत करने से भी छुपाया नहीं जा सकता। सोचने की बात यह भी है कि सब-कोटा को अर्थपूर्ण बनाने के लिए सिरों की गिनती पर्याप्त नहीं है। एससी जातियों की संख्या लगभग १,२०० है और एसटी कबीले ७१५ से अधिक हैं। अब इनमें से हर एक के सामाजिक-आर्थिक डाटा की पदव्याख्या करनी होगी। यह बहुत बड़ा काम है और इसमें राजनीति भी निर्धारक तत्व होगी। सुप्रीम कोर्ट ने तो सब-कोटा की संवैधानिकता के आधार पर पैâसला दिया है, अब इसका सकारात्मक योगदान वैâसे होगा, यह राजनीति के संख्या खेल पर निर्भर रहेगा।
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया है कि कोई राज्य मनमाने ढंग से किसी जाति के लिए सब-कोटा निर्धारित न करे कि उसके पास अपने फैसले के लिए उचित कारण होने चाहिए, जो कि न्यायिक समीक्षा के लिए भी खुले रहेंगे, लेकिन इसके बावजूद इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि राज्य सियासी व चुनावी कारणों से मनमानी नहीं करेंगे, भले ही बाद में मामला अदालतों में जाए या सड़कों पर। अत: प्रतीक्षा कीजिए कि कोटा में सब-कोटा क्या-क्या गुल खिलाता है?
(लेखक सम-सामयिक विषयों के विश्लेषक हैं)