विजय कपूर
सुप्रीम कोर्ट का डंडा
ऐतिहासिक निर्णय देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने २५ फरवरी २०२५ को बिहार विधान परिषद के २६ जुलाई २०२४ के पैâसले को पलट दिया है, जिसके तहत राजद के नेता सुनील कुमार सिंह को सदन से बर्खास्त कर दिया था; क्योंकि उन्होंने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की नकल (मिमिक्री) उतारते हुए उनका मजाक उड़ाया था। न्यायाधीश सूर्यकांत और न्यायाधीश एन कोटिश्वर सिंह की खंडपीठ ने सदन के फ्लोर पर और एथिक्स कमेटी के समक्ष राजद के मुख्य व्हिप सुनील कुमार सिंह के आचरण की कड़ी आलोचना की, लेकिन उनको दी गई सजा को ‘अत्यधिक व असंगत’ घोषित करते हुए उनकी बर्खास्तगी को निरस्त कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने सुनील कुमार सिंह की सदन की सदस्यता तो बहाल कर दी है, लेकिन निलंबन अवधि के दौरान का वेतन या कोई अन्य आर्थिक लाभ उन्हें नहीं दिया जाएगा। गौरतलब है कि इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने एमएलसी की बर्खास्तगी के कारण रिक्त हुई सीट के लिए चुनाव आयोग द्वारा उपचुनाव कराने के फैसले पर रोक लगा दी थी।
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय कई मायनों में महत्वपूर्ण है। यह इस सिद्धांत कि सजा अपराध से असंगत नहीं होनी चाहिए, में और सदन में शिष्टाचार व उचित आचरण की आवश्यकता में संतुलन स्थापित करता है। खंडपीठ ने कहा, ‘संसद या विधानसभा की कार्यवाही के दौरान आक्रामकता व बदतमीजी के लिए कोई जगह नहीं है। सदस्यों से उम्मीद की जाती है कि वह एक-दूसरे का पूर्ण आदर व सम्मान करें। यह उम्मीद मात्र परंपरा या औपचारिकता ही नहीं है बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया की प्रभावी कार्यवाही के लिए जरूरी भी है। इससे डिबेट्स व चर्चाओं का उत्पादक होना सुनिश्चित होता है, फोकस मुद्दे पर ही रहता है और कार्यवाही संस्था की गरिमा के अनुरूप संचालित होती है’। सुप्रीम कोर्ट द्वारा बिहार के एमएलसी की बर्खास्तगी को निरस्त करना न केवल उचित है बल्कि इसके विस्तृत प्रभाव होने जा रहे हैं। अदालत का कहना है कि सजा ‘प्रतिकार’ का औजार नहीं है। यह बात केवल वर्तमान न्यायिक संदर्भ में ही प्रासंगिक नहीं है, बल्कि संपूर्ण राजनीति व सरकारों के लिए उचित है। यह सही है कि सुनील कुमार सिंह का सात माह से अधिक बर्खास्त रहना असाधारण था कि चुनाव आयोग ने उनकी रिक्त सीट पर उपचुनाव भी घोषित कर दिया था, जिस पर अदालत ने रोक लगाई, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के अनुसार उनका आचरण ‘घिनौना’ था और ‘परिषद के सदस्य के अनुरूप न था’।
राजनीतिक वार्ता में पतन
सच में, एक प्रकार का भौंडापन राजनीतिक वार्ता में आ गया है, जो बिना रोक-टोक निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। यह पतन संसद से लेकर विधानसभाओं तक जग जाहिर है।
बिहार के एमएलसी द्वारा की गई टिप्पणी से अधिक भद्दी, वीभत्स व वास्तव में आपत्तिजनक बातें संसद और विधानसभाओं में की जाने लगी हैं और किसी के कान पर जूं नहीं रेंगती। यही वजह है कि अत्यधिक वीभत्स टिप्पणी, विशेषकर महिलाओं के खिलाफ, करने के बावजूद आज तक किसी सांसद या विधायक के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही नहीं हुई है। चर्चाओं का स्तर कितना गिर गया है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछली लोकसभा का जब नए संसद भवन में पहले विशेष सत्र हुआ था तो दक्षिण दिल्ली से बीजेपी के सांसद रमेश बिधूड़ी ने अमरोहा से बसपा सांसद दानिश अली के विरुद्ध जिस अपमानजनक व आपत्तिजनक भाषा बल्कि गालियों का प्रयोग किया था, वह वास्तव में हेट स्पीच के दायरे में थी। रमेश बिधूड़ी की इस अशोभनीय हरकत से संसद की गरिमा को तो ठेस पहुंची ही थी, पूरा देश भी शर्मसार हुआ था, लेकिन इससे भी अधिक निंदनीय यह था कि जिस समय रमेश बिधूड़ी हाउस के फ्लोर पर अपशब्दों का प्रयोग कर रहे थे तो उन्हें चुप कराने की बजाय बीजेपी के दो वरिष्ठ सांसद व पूर्व मंत्री रविशंकर प्रसाद व डॉ. हर्षवर्धन न सिर्फ हंस रहे थे बल्कि डेस्क थपथपा कर उन्हें प्रोत्साहित कर रहे थे। भारत के संसदीय इतिहास में रमेश बिधूड़ी की यह शर्मनाक हरकत अप्रत्याशित है, लेकिन अफसोस! रमेश बिधूड़ी के खिलाफ कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही नहीं हुई थी।
हास्य व्यंग्य गायब
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट ने अब कहा है कि सदन के अंदर बोलने के अधिकार का अर्थ यह नहीं है कि साथी सदस्यों, मंत्रियों या चेयर का अपमान किया जाए, उन्हें नीचा दिखाया जाए या उन्हें बदनाम किया जाए। यहां यह बताना आवश्यक है कि सदन में जो कुछ कहा जाता है, उसे अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती। अलबत्ता उसे स्पीकर के आदेश से सदन की कार्यवाही की रिकॉर्डिंग से निकाला जा सकता है। वैसे सदन की चर्चाओं व डिबेट्स में जो पतन आया है, उसका सबसे दुखद पहलू यह है कि राजनीति से हास्य-व्यंग्य की कला लुप्त हो गई है। एक समय था, जब सदन में सदस्य अच्छी भावना से एक-दूसरे की चुटकी लिया करते थे और अगले दिन के अखबार में वह बॉक्स आइटम बन जाया करती थी। मजाक, हास्य-व्यंग्य के यह बेतकल्लुफ बाण केवल सदन में ही नहीं चलते थे बल्कि अखबारों में कार्टूनिस्ट और व्यंग्यकार भी चलाया करते थे। शंकर या लक्ष्मण जब सरकार पर कोई गहरा व्यंग्य बाण अपने कार्टूनों में चलाते थे तो पंडित जवाहरलाल नेहरू स्वयं उन्हें फोन करके उनकी कला की प्रशंसा किया करते थे। हरिशंकर परसाई, केपी सक्सेना, दिलीप सिंह या फिक्र तौंसवी जैसे व्यंग्यकारों को कोई सियासतदां अपना दुश्मन नहीं समझता था। सदन में भी गंभीर चर्चाओं के दौरान पक्ष व विपक्ष में दिलचस्प व आलोचनात्मक मजाक हो जाया करता था, जिसका हर कोई आनंद लिया करता था, बुरा मानने की तो बात ही न थी।
वफा की उम्मीद…
मसलन, २०११ में जब संसद में विकिलीक्स केबल को लेकर हंगामा हो रहा था तो विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर हमला बोलते हुए कहा था, ‘तू इधर-उधर की न बात कर, ये बता कि काफिला क्यों लुटा / हमें रहजनों से गिला नहीं, तेरी रहबरी का सवाल है’। इसके जवाब में मनमोहन सिंह ने कहा था, ‘माना कि तेरी दीद के काबिल नहीं हूं मैं / तू मेरा शौक देख, मेरा इंतजार देख’।
इसी तरह २०१३ में भी जब राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर बहस हो रही थी तो इन दोनों नेताओं में शायराना नोक-झोंक हुई थी। तब मनमोहन सिंह ने बीजेपी पर निशाना कसते हुए कहा था, ‘हमको उनसे है वफा की उम्मीद/ जो नहीं जानते वफा क्या है’।
इसका पलटवार करते हुए सुषमा स्वराज ने कई शेर पढ़े थे, जिनमें से एक यह भी था, ‘तुम्हें वफा याद नहीं/हमें जफा याद नहीं। जिंदगी और मौत के दो तराने हैं/एक तुम्हें याद नहीं, एक हमें याद नहीं’। लेकिन अब तो देशभर में आवश्यकता से अधिक छुईमुई के पौधे हो गए हैं-पुरुष व महिला राजनीतिज्ञ जो हल्के-फुल्के मजाक पर भी इतना बुरा मान जाते हैं कि जेल में डालने की केवल धमकी ही नहीं देते, बल्कि डलवा भी देते हैं। अब तो अखबारों में कार्टून प्रकाशित होना लगभग बंद हो गए हैं। हास्य-व्यंग्य व लतीफे तो नेतागिरी का अटूट हिस्सा होने चाहिए। मोटी चमड़ी का होना तो नेताओं का दूसरा स्वभाव होता है। अपनी परिधि का विस्तार करने की बजाय नेताओं को अपने दिमाग का विस्तार करना चाहिए, ताकि हर तरह की आलोचना, चाहे जिस रूप में हो, के लिए जगह बन सके। अगर वह भौंडी है तो उसका स्तर बेहतर करो। खराब लतीफे का जवाब अच्छा लतीफा है। अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी की कीमत पर अच्छे लतीफे से बढ़कर कोई बेहतरीन बदला नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने अपना काम बेहद जहीन तरीके से कर लिया है। सवाल यह है कि क्या सियासतदां अपनी फितरत बदलने की कोशिश करेंगे? क्या सियासत में लौटेगा सेहतमंद हास्य और सदन में फिर गूंजेगा खुशनुमा माहौल, जहां पर राजनीतिक उन पर चलाए गए व्यंग्य बाणों पर उबलकर बरसने की जगह हंसते हुए कटाक्ष करेंगे!
(लेखक सम-सामयिक विषयों के विश्लेषक हैं।)