मुख्यपृष्ठस्तंभसियासत का सुनहरा दौर गुजर गया!-दिग्विजय सिंह

सियासत का सुनहरा दौर गुजर गया!-दिग्विजय सिंह

प्रदूषित राजनीति में अब नैतिकता नामक कोई चीज नहीं बची। चारों ओर गद्दारी और स्वार्थ का बोलबाला है। पार्टी ने जिस नेता को सब कुछ दिया, मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक बनाया, लेकिन जब पार्टी के दिन थोड़े से उन्नीस-बीस हुए तो नेताओं ने पाला बदलने में तनिक देरी नहीं की। ऐसी तस्वीरें मौजूदा वक्त में रोजाना देखने को मिल रही हैं। पार्टियां छोड़कर भाजपा में अन्य दलों के नेता एक-एक करके शामिल हो रहे हैं। इसी मुद्दे पर मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री व कांग्रेस के टॉप सीनियर लीडर दिग्विजय सिंह से डॉ. रमेश ठाकुर ने बातचीत की। पेश हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश-
– पाला बदलने वाले नेताओं को आप कैसे देखते हैं?
हमें देखने की जरूरत नहीं, ये कार्य जनता पर छोड़ देना चाहिए। लेकिन मौजूदा बदलती सियासी परिस्थितियों को देखकर बहुत दुख होता है कि गंदी राजनीति का दौर कितनी तेजी से आरंभ हुआ है। इन बदली परिस्थितियों का श्रेय भाजपा को दिया जाना चाहिए। क्योंकि उन्होंने नेताओं को लालची बनाने में कोई कोर-कसस नहीं छोड़ी। अगर मैं दिल से कहूं तो राजनीति का बेहतरीन और सुनहरा वक्त गुजर चुका है, जिसे हम जैसे लोगों ने जिया है। नेता अब जनहित नहीं, बल्कि स्वार्थहित की राजनीति करने के लिए पार्टियों से जुड़ते हैं।
– ये सिलसिला रुकेगा या फिर यूं ही चलता रहेगा?
जनता की चुनी हुई सरकारें दिनदहाड़े तोड़ी जा रही हैं। मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र में क्या हुआ, कोई नहीं भूलेगा। सभी संवैधानिक संस्थाएं निष्क्रिय कर दी गई हैं। चुनाव आयोग पंगु बना हुआ है। सांसद-एमएलए पर जांच एजेंसियों का पहरा बिठा दिया गया है। विपक्ष के नेताओं और मंत्रियों को भय दिखाकर पार्टी को छोड़ने का दबाव डाला जाने लगा है। सियासी दलों में दो फाड़ किए जा रहे हैं। ऐसे ज्यादातर नेता मजबूरी में अपने वास्तविक दल छोड़कर भाजपा में जा रहे हैं। जहां तक सिलसिला रुकने का सवाल है, मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि भाजपा के जाते ही ये सिलसिला अपने आप थम जाएगा।
-क्या भाजपा अब ‘कांग्रेसयुक्त’ हो गई है?
देखना, जितने नेता वहां पहुंचे हैं, एक दिन दोबारा अपने घरों को लौटते हुए दिखाई देंगे। यही नहीं, खुद भाजपाई भी इधर-उधर होंगे, दूसरे ठिकाने तलाशेंगे, क्योंकि वो सभी हाशिए पर आ गए हैं। भाजपा चुनावों में टिकट, पद और सम्मान दूसरे दलों से आए नेताओं को दे रही है, जबकि उनके अपने नेता मुंह ताक रहे हैं। भाजपा ने अपने यहां दूसरे दलों से आधे से ज्यादा नेता भर लिए हैं, जिन्हें संभालना, उनकी इच्छापूर्ति करना बड़ी चुनौती होगी। भाजपा बाहरी सभी नेताओं को टिकट नहीं दे सकती। सोचने वाली बात है जब उनके हाथ कुछ नहीं लगेगा, तो वे खिसकने में देर नहीं करेंगे। तब मजबूरी में इधर-उधर भागेंगे।
– पार्टी तो पहले के नेता भी छोड़ते-बदलते थे?
पर उनका तरीका अलग और अलहदा होता है। तब ऐसा करने वाले नेताओं पर कोई उंगली नहीं उठाता था, बाकायदा उनके चाहने वाले समर्थन में स्वागत करते थे। पार्टी छोड़ने या नया दल बनाने का फैसला भी अपने कार्यकर्ताओं के कहने पर किया करते थे। अभावग्रस्त और हाशिए पर धकेले हुए नेता दल बदलते थे या फिर अपनी कोई पार्टी बना लेते थे। जेपी आंदोलन के बाद कई राज्यों में छोटे-छोटे दल बने, जो धीरे-धीरे प्रभावशाली हुए। कांग्रेस से छिटकर भी कई नेताओं ने अपनी पार्टियां बनाईं, लेकिन आज के नेता टिकट मिलने और मंत्री बनने के लालच में ही खुद के ईमान का सौदा कर लेते हैं। न अपने समर्थकों से राय लेते हैं और न कार्यकर्ताओं की भावनाओं का ख्याल रखते हैं। सिर्फ अपने हित का ध्यान रखते हैं।
-आपको नहीं लगता कि ऐसे में दल-बदल कानून को और प्रभावी करने की जरूरत है?
प्रभावी नहीं, बल्कि मेरे खयाल से अलग से कठोर कानून बनना चाहिए। जब तक बंदिशें नहीं बढ़ेंगी, ऐसे अनैतिक कार्यों पर अंकुश नहीं लगेगा। वैसे अगर सभी स्थितियों-परिस्थितयों पर गौर से मंथन करें तो दल-बदल की स्थिति तब होती है, जब किसी भी दल के सांसद या विधायक अपनी मर्जी से पार्टी छोड़ते हैं या पार्टी व्हिप की अवहेलना करते हैं। उस स्थिति में सदस्यता को समाप्त किया जा सकता है और उन पर दल-बदल निरोधक कानून भी लागू किया जा सकता है। लेकिन ये नियम महाराष्ट्र में हमें निष्प्रभावी दिखाई पड़ा। कानून होने के बावजूद फैसला एकपक्षीय दिखा। भाजपा ने चुनी हुई सरकार को तोड़कर खुलेआम अपनी मनमानी की।

 

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