मुख्यपृष्ठस्तंभराजनीतिक फिल्मों की अराजनीतिक समीक्षा के टिप्स!

राजनीतिक फिल्मों की अराजनीतिक समीक्षा के टिप्स!

महेश राजपूत

इधर राजनीतिक वल्गर प्रोपेगेंडा फिल्मों की बाढ़ आई हुई है तो कई समीक्षक असमंजस में पड़ गए हैं कि समीक्षा वैâसे करें कि ‘भक्त’, ‘गोदी समीक्षक’, ‘प्रगतिगामी’ भी न कहलाएं और रोजी-रोटी (पहले के जमाने में लिफाफा और अब ‘पेटीएम पर पांच सौ रुपए प्राप्त हुए’) भी बची रहे। इसे संयोग ही कहिए कि अपने हाथ एक घाघ फिल्म समीक्षक की डायरी लग गई, जिसमें कई टिप्स दिए हुए थे। यह समीक्षक तीन दशक इस पेशे में सर्वाइव किए थे तो जाहिर है टिप्स बड़े काम के थे और भले सामान्य अर्थों में थे यानी ‘राजनीतिक’ ‘अराजनीतिक’ फिल्मों के खांचे में नहीं बंटे थे, लेकिन इनके मूल में था कि समीक्षा ऐसी लिखो कि निर्माता के धंधे को चोट न पहुंचे यानी बुराई भी ऐसी करो कि दर्शकों में फिल्म देखने की उत्सुकता जगे। अब राजनीतिक फिल्मों का मकसद भी तो धंधा करना है और अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करना। यह मकसद तभी तो पूरा होगा, जब दर्शक फिल्म देखने आएंगे। भूमिका थोड़ी लंबी हो गई तो पेश हैं उस समीक्षक के टिप्स, जो मानते थे कि कोई निर्माता बुरी फिल्म नहीं बनाना चाहता, फिल्म से कई लोगों की रोजी-रोटी चलती है, सो समीक्षक का काम बड़ी जिम्मेदारी का काम है:
१. स्पष्ट कर दें कि फिल्म के कथित विवादास्पद पहलुओं जैसे राजनीति, सांप्रदायिकता, स्त्रीद्वेष, पितृसत्ता आदि से आप सहमत नहीं हैं और आप केवल इसके कलात्मक पक्षों पर बात करेंगे जैसे फोटोग्राफी बढ़िया है, पटकथा कसी हुई है, अभिनय शानदार है, वगैरह-वगैरह।
२. फिल्म की खामियों को जितना हो सके ढंकें और खूबियों को जितना उभार सकें, उभारें।
३. भले ही यह अर्ध सत्य हो, लेकिन जोर देकर कहें कि फिल्म मनोरंजन की दृष्टि से बनाई गई है और उसी दृष्टि से इसे देखना चाहिए।
४. रेखांकित करें कि फिल्मों से समाज नहीं बदलता, फिल्में समाज को प्रभावित नहीं करतीं इसलिए फिल्मों से समाज में बुराई पैâलेगी, यह सच नहीं है।
५. अंत में फिल्म ‘शोले’ का डायलॉग कभी न भूलें कि घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या? अर्थात आपकी प्रतिबद्धता अपने पाठक / दर्शक के प्रति नहीं, फिल्म निर्माता या संस्थान के मालिक यानी प्रकाशक / प्रसारक के प्रति होनी चाहिए, जो हमेशा नहीं तो अक्सर सेम पेज पर होते हैं।
कुल मिलाकर आपकी समीक्षा फिल्म के शुरू में दिए जानेवाले डिस्क्लेमर की तरह होनी चाहिए। उदाहरण: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म ऐसा कोई दावा नहीं करती कि फिल्म में इतिहास को तोड़-मरोड़कर नहीं दिखाया गया और अंत में यह टिप्स उन समीक्षकों के लिए हैं, जो पहले से या पूरी तरह प्रचारक नहीं बन गए हैं। वैसे भी जिन फिल्मों का प्रचार खुद पीएम यानी प्रचार मंत्री कर रहे हों, उन्हें समीक्षकों की क्या जरूरत।
डिस्क्लेमर: इस लेख का ‘कश्मीर फाइल्स’, ‘एनिमल’ से लेकर ‘आर्टिकल ३७०’ की पेड/अनपेड सकारात्मक प्रचारात्मक समीक्षाओं से कोई संबंध नहीं है।

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