मुख्यपृष्ठस्तंभउड़न छू : सिकंदर और बकंदर

उड़न छू : सिकंदर और बकंदर

अजय भट्टाचार्य

मैसेडोन के यूनानी राजा सिकंदर महान जब कई देशों/राज्यों पर विजय प्राप्त करने के बाद अपने देश लौटा तो वह बीमार पड़ गया, जिसके कारण उसकी मृत्यु हो गई। मृत्यु से पहले सिकंदर ने अपने सेनापतियों को इकट्ठा किया और उनसे कहा, `मैं जल्द ही इस दुनिया को छोड़ दूंगा, मेरी तीन इच्छाएं हैं, कृपया उन्हें अवश्य पूरा करें।’
राजा ने अपने सेनापति से अपनी जिन अंतिम इच्छाओं का पालन करने को कहा था वे इस प्रकार थीं। सिकंदर ने पहली इच्छा में कहा कि मरने के बाद कब्रिस्तान तक मेरे डॉक्टर को केवल मेरा ताबूत ले जाना चाहिए। उसकी दूसरी इच्छा यह थी कि अंतिम यात्रा के प्रारंभ से लेकर समाप्ति स्थल तक के रास्ते पर उसके द्वारा जमा की गई संपत्ति को बिखेर दिया जाए और तीसरी व अंतिम इच्छा में सिकंदर उर्फ अलेक्जेंडर ने कहा, `मेरी तीसरी और आखिरी इच्छा है कि मेरे दोनों हाथ मेरे ताबूत से बाहर लटके रहें।’
सेनापति अपने राजा की अंतिम इच्छा का पालन करने के लिए सहमत हुए और उनसे पूछा कि उन्हें ऐसा क्यों करना चाहिए। अलेक्जेंडर ने कहा, `मैं चाहता हूं कि दुनिया उन तीन सबक को जाने, जो मैंने अभी सीखे हैं।’ राजा ने अपनी इच्छा बताई और जारी रखा, ‘मैं चाहता हूं कि मेरा ताबूत मेरा डॉक्टर उठाए, क्योंकि लोगों को यह समझना चाहिए कि इस धरती पर कोई भी डॉक्टर वास्तव में किसी को ठीक नहीं कर सकता है। वे मौत के सामने असहाय हैं।
राजा ने अपनी दूसरी इच्छा बताते हुए कहा, ‘मैंने अपना पूरा जीवन धन-संपत्ति अर्जित करने में बिता दिया, लेकिन अपने साथ कुछ भी नहीं ले जा सकता। लोगों को बताएं कि धन धूल के अलावा और कुछ नहीं है। तीसरा, मैं चाहता हूं कि लोगों को पता चले कि मैं इस दुनिया में खाली हाथ आया था और खाली हाथ ही जाऊंगा।
आखिर सिकंदर को यह वीतरागी ज्ञान मिला कहां से? किंवदंति है कि भारत विजय अभियान के दौरान एक बार अपनी सेना से बिछड़कर थका-भूखा सिकंदर जंगल-जंगल भटक रहा था, तभी उसे एक झोपड़ी दिखी। वो उस झोपड़ी तक पहुंचा और भोजन मांगा। झोपड़ी के भीतर से एक बुढ़िया निकली, जिसके हाथ में सोने-चांदी से भरा थाल था। उसने वह थाल सिकंदर के सामने रखा और कहा कि लो और अपनी भूख मिटाओ। तुम इसी सोने-चांदी के लिए ही युद्ध कर रहे हो न? कहते हैं कि उस बूढ़ी की बातों से सिकंदर के ज्ञान चक्षु खुल गए और विश्वविजेता भारत की ज्ञान परंपरा के आगे नतमस्तक हो वापस लौट पड़ा यूनान की तरफ। जहां तक इतिहास की थोड़ी भी जो मेरी समझ है, सिकंदर ने अपने लिए कभी नहीं कहा कि ‘एक अकेला सब पर भारी’ और न ही उसने खुद को दिव्यात्मा घोषित किया। यही वजह है कि जब बकंदर देश की दक्षिणी कोर पर शिला ध्यान के लिए ४५ घंटे बैठे, मुझे लगा अब तो ज्ञान खुद कूट-कूट कर उनके दिव्य शरीर में प्रवेश करेगा। लेकिन जिस तरह सिकंदर को अरस्तु जो ज्ञान नहीं दे पाए, वो ज्ञान भारत की एक वृद्धा ने दिया। इसलिए शिलायोगध्यान भी जो काम नहीं कर पाया, भारत की जनता ने कर दिखाया। बकंदर मैं, मेरा, मेरी से उतरकर हम पर आ खड़े हुए, क्योंकि ४०० खूंटे उखाड़ने का सपना टूट चुका था। अपने और अपनी पार्टी के बूते भी टिके रहने का आत्मविश्वास हिल चुका था। नतीजा खुद को भगवान घोषित करने के नजदीक पहुंच चुके बकंदर मनुष्य योनी में वापसी कर चुके थे। जिनके डीएनए पर सवाल उठा रहे थे, अब उनसे ही अपने डीएनए का मिलान कर आगे बढ़ने की बात करने लगे और सबसे महत्वपूर्ण यह कि मेरी गारंटी, मेरी गारंटी जपने वाले को यह पता ही नहीं कि जिनकी बैसाखियों पर खड़ा है, इनकी गारंटी है कि नहीं।
नोट : उपरोक्त लेख हाल में ही पाकिस्तान में हुई महत्वपूर्ण परीक्षा में प्रतिभागियों द्वारा लिखे गए सिकंदर और बकंदर निबंध से लिया गया है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं तथा व्यंग्यात्मक लेखन में महारत रखते हैं।)

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