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मेहनतकश: बचपन से ही था समाजसेवा का जज्बा

सगीर अंसारी

कोई पैसे तो कोई अपने रसूख के दम पर खुद को समाज में खड़ा करने की कोशिश करता है, लेकिन समाज में कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो अपनी मेहनत के बलबूते लोगों की नि:स्वार्थ मदद करने के साथ ही उनके सुख-दुख में हमेशा साथ खड़े रहते हैं। समाजसेवक अब्दुल रहीम खान ने भी काफी कम उम्र में ही लोगों के बीच अपनी अलग पहचान बनाई है। उत्तर प्रदेश के अकबरपुर से ताल्लुकात रखनेवाले अब्दुल रहीम खान का जन्म काफी गरीब परिवार में हुआ। वर्ष १९५० में उनके दादा अब्दुल बारी काम की तलाश में मुंबई आए और मुंबई के मशहूर चोर बाजार में कपड़े के कारोबार से अपने जीवन की शुरुआत की। इसके बाद उनके पिता मुर्तुजा खान ने अपने पिता का साथ दिया। परिवार काफी बड़ा होने के कारण अब्दुल रहीम खान बचपन में मिलनेवाली सुख-सुविधाओं से वंचित रहे। परिवार के भरण-पोषण के लिए बचपन से ही अब्दुल रहीम खान ने मेहनत के साथ ही अपनी शिक्षा भी जारी रखी, लेकिन घर के हालात को देखते हुए वह ज्यादा पढ़ न सके। कम शिक्षा की एक वजह यह भी थी कि बचपन में ही उनके अंदर समाजसेवा का जज्बा पैदा हो गया था। अकेले अपने दम पर लोगों की सेवा करनेवाले अब्दुल रहीम खान को लगा कि लोगों की मदद के लिए उन्हें राजनीतिक पार्टी का सहारा लेना पड़ेगा। इसके लिए उन्होंने वर्ष २०१० में समाजवादी पार्टी को चुना और सपा विधायक अबू आसिम आजमी के साथ मिलकर वे लोगों की सेवा में जुट गए और क्षेत्र के विकास के लिए उन्होंने हर मुमकिन कोशिश शुरू कर दी। अब्दुल रहीम खान की समाजसेवा को सराहते हुए स्थानीय पूर्व नगरसेविका स्व. नूरजहां रफीक शेख की पूरी टीम का इन्हें सहयोग मिला और पूरी तरह से वे समाजसेवा में रम गए। पैसों की कमी के चलते इन्होंने तन और मन से लोगों की सेवा की। फिर चाहे लोगों के नल कनेक्शन का मामला हो या इलाज या बच्चों की शिक्षा हो या फिर गरीब लड़कियों की शादी का हो, अब्दुल रहीम खान हर जगह डटकर खड़े रहे। कोविड के दौरान जहां लोग अपनी और अपने परिवार की जान की हिफाजत में लगे थे, वहीं अब्दुल रहीम खान ने अपनी जान की परवाह न करते हुए लोगों की हर मुमकिन मदद की। अब्दुल रहीम खान का कहना है कि कोविड के भयानक दौर के दौरान उन्होंने स्थानीय नगरसेविका आयशा नूरजहां के पिता रफीक शेख और उनकी टीम के साथ मिलकर लोगों के स्वास्थ्य के लिए अपने तौर पर काम किया। अब्दुल रहीम खान बताते हैं कि लोगों की मदद के दौरान वो खुद इस बीमारी की चपेट में आ गए और काफी कोशिशों के बाद उनकी जान बची। अब्दुल रहीम खान आज भी दिन हो या रात तन-मन से लोगों की सेवा में जुटे रहते हैं। अपने परिवार की परवाह न करते हुए समाज को अपना परिवार समझकर उनकी सेवा को ही वे अपनी निष्ठा समझते हैं।

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