डॉ. दीनदयाल मुरारका
एक समय की बात है इंग्लैंड की एक विदुषी मार्गरेट नोबल को स्वामी विवेकानंद का भाषण सुनने का अवसर मिला। विवेकानंद के विचारों से प्रभावित होकर उन्होंने उनके द्वारा बताए हुए मार्ग पर चलने का संकल्प ले लिया और उनके आह्वान पर भारत आकर सेवा कार्यों में समर्पित हो गर्इं। स्वामी जी ने उन्हें नया नाम दिया भगिनी निवेदिता और बंगाल में स्त्री शिक्षा का कार्य उन्हें सौंप दिया। निवेदिता ने अनाथ बालिकाओं के लिए अनाथाश्रम शुरू किया और ब्रिटिश सरकार से सहायता न लेने का संकल्प करते हुए देशवासियों से धन की सहायता लेकर अपने कार्यों को उन्होंने आगे बढ़ाया।
एक बार सहायता के लिए वह एक संपन्न व्यक्ति के पास पहुंचीं और उन्होंने अनाथ बालिकाओं के भरण-पोषण के लिए सहायता मांगी। व्यक्ति ने सहायता देने से इनकार करते हुए उन्हें चले जाने को कहा। मगर निवेदिता ने एक बार फिर मदद का आग्रह किया। पुन: मदद का आग्रह सुनकर व्यक्ति को क्रोध आ गया और विवेक शून्य होकर उसने भगिनी निवेदिता को थप्पड़ जड़ दिया। भगिनी कुछ देर तक शांत रहीं।
निवेदिता ने फिर से निवेदन किया, महोदय, क्रोध में आकर आपने मुझे थप्पड़ दिया है, बड़े आनंद की बात है, लेकिन अब अनाथ बालिकाओं के लिए कुछ तो दीजिए। निवेदिता के मुंह से इतना सुनते ही व्यक्ति पानी-पानी हो गया और उसकी समझ में आ गया कि एक सच्चा सामाजिक कार्यकर्ता अपने मान-अपमान की चिंता छोड़कर अपने सेवा कार्य को ही एकमात्र लक्ष्य बना लेता है। आज भी देश के अन्य क्षेत्रों में भगिनी निवेदिता के नाम पर कॉलेज और दूसरी संस्थाएं चल रही हैं। इन संस्थाओं में आसपास के गांवों की बेसहारा युवतियां शिक्षा ग्रहण करते हुए भगिनी निवेदिता की राह पर चलने का संकल्प लेती हैं।