नंगे से भगवान भी हारता है
एक पुराना मुहावरा
भोजन की कोई आस न हो
तो कई दिनों का भूखा
कुछ भी खा लेता है
जैसे ही नंगे को
अहसास होता है
अपने नंगेपन का
वह सड़क पर से
कुछ भी उठाकर
नंगई ढांप लेता है
देह की तरह
विचारों का नंगापन भी होता है
जैसे ही विचार शून्यता
या विचारों की अनिवार्यता
पता चलती है
वैचारिक नंगा
आस-पास इफ़रात में पड़े
कैसे भी विचार
झट से टाप लेता है
और विचारों का नंगापन
ढांप लेता है
नंगेपन के अहसास से खीझा हुआ
वस्त्र को ही देह समझ लेता है
वैसे जिनकी आत्मा नंगी हो चुकी हो
उनका नंगापन दुनिया के सारे वस्त्र
मिलकर भी ढांक नहीं सकते
ऐसे लोग जितने अधिक
जितने ख़ूबसूरत जितने कींमती
वस्त्र धारण करते हैं
उतने ही और नंगे होते जाते हैं
कहते हैं ऐसी ही नंगई से
भगवान हारते हैं
और भगवान का हारना
हर बार पूरी इन्सानियत को
नंगा कर जाता है।
– हूबनाथ