द्विजेंद्र तिवारी
मुंबई
दिल्ली के कोचिंग सेंटर के बेसमेंट में डूबकर तीन प्रतिभाशाली विद्यार्थियों की मौत से पूरा देश हिल गया। केरल में भी सैकड़ों लोग मलबे के नीचे दब गए। हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी यूपी और बिहार में बाढ़ ने तांडव मचाया। इस तरह की घटनाएं लगभग हर साल होती हैं। लेकिन समस्या का कोई स्थायी समाधान ढूंढ़ने की ईमानदार कोशिश नहीं की गई।
हम वर्षों से पढ़ते आए हैं कि भारत एक कृषि प्रधान देश है, जहां नदियों का व्यापक जाल है। यहां नदियों का महत्व केवल कृषि के लिए ही नहीं, बल्कि लोगों की जीवनशैली और संस्कृति में भी बहुत गहरा है, परंतु जब यही नदियां उफान पर होती हैं तो वे विनाश का कारण बन जाती हैं। हाल के दिनों में भारत में बाढ़ की समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया है। यह समस्या न केवल जान-माल का नुकसान करती है, बल्कि देश की आर्थिक प्रगति में भी बाधा उत्पन्न करती है।
इस वर्ष, विशेषकर उत्तरी और पूर्वी भारत के राज्यों में बाढ़ ने भारी तबाही मचाई है। बिहार, असम, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल जैसे राज्य बाढ़ से सबसे अधिक प्रभावित हुए हैं। हजारों लोगों को अपने घरों से विस्थापित होना पड़ा और कई लोगों की जान चली गई। लाखों हेक्टेयर कृषि भूमि जलमग्न हो गई, जिससे किसानों को भारी नुकसान हुआ।
बाढ़ की यह समस्या हर वर्ष आती है, लेकिन इस बार इसका प्रभाव अधिक गंभीर रहा है। बाढ़ के कारण नदियों के किनारे बसे गांव और शहर पूरी तरह से जलमग्न हो गए। दिल्ली-मुंबई जैसे महानगर भी इससे नहीं बचे। सड़कों, पुलों और अन्य बुनियादी ढांचों को भी भारी नुकसान पहुंचा है।
भारत में बाढ़ की समस्या कोई नई नहीं है। यह समस्या हर साल बरसात के मौसम में आती है और हजारों लोगों की जिंदगी को प्रभावित करती है। बाढ़ की समस्या का एक बड़ा कारण जलवायु परिवर्तन भी है। जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा की मात्रा और उसका वितरण असमान हो गया है, जिससे बाढ़ की स्थिति और गंभीर हो जाती है।
बाढ़ की समस्या के समाधान में प्रशासन की विफलता भी एक बड़ा मुद्दा है। हर साल बाढ़ आने के बावजूद, प्रशासनिक स्तर पर कोई ठोस कदम नहीं उठाए जाते हैं। बाढ़ प्रबंधन योजनाओं का अभाव, आधुनिक चेतावनी प्रणाली की कमी और राहत एवं बचाव कार्यों में देरी प्रशासन की असफलता को दर्शाती है। अधिकांश राज्यों में बाढ़ प्रबंधन योजना या तो होती नहीं है या फिर यदि होती भी है तो वह प्रभावी नहीं होती। बाढ़ से पहले लोगों को सचेत करने के लिए प्रभावी चेतावनी प्रणाली का अभाव है। इससे लोग समय रहते सुरक्षित स्थान पर नहीं पहुंच पाते। बाढ़ आने के बाद राहत एवं बचाव कार्यों में देरी होती है, जिससे लोगों को और अधिक नुकसान होता है।
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) की एक पुरानी रिपोर्ट के अनुसार भारत के ३२९ मिलियन हेक्टेयर के कुल भौगोलिक क्षेत्र में लगभग ४० मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र बाढ़ प्रवण क्षेत्र है। हर वर्ष औसतन ७५ लाख हेक्टेयर भूमि प्रभावित होती है। १,६०० लोगों की जान जाती है और बाढ़ के कारण फसलों, घरों और सार्वजनिक संपत्ति को १,८०० करोड़ रुपए का नुकसान होता है। वर्ष १९७७ में सबसे अधिक ११,३१६ लोगों की जान गई थी। भीषण बाढ़ की आवृत्ति अब हर पांच वर्षों में एक से अधिक बार होती है।
बाढ़ उन क्षेत्रों में भी आ रही है, जिन्हें पहले बाढ़ प्रवण नहीं माना जाता था। नदियां जलग्रहण क्षेत्रों से भारी मात्रा में तलछट लाती हैं। नदियों की अपर्याप्त वहन क्षमता के साथ-साथ ये बाढ़, जल निकासी की कमी और नदी के किनारों के कटाव के लिए जिम्मेदार हैं। चक्रवात और बादल फटने से अचानक बाढ़ आती है और भारी नुकसान होता है। यह एक तथ्य है कि भारत में नुकसान पहुंचाने वाली कुछ नदियां नेपाल जैसे पड़ोसी देशों से निकलती हैं; जो समस्या बढ़ा देती हैं। बाढ़ के कारण लगातार और बड़े पैमाने पर जान-माल की हानि और सार्वजनिक व निजी संपत्ति को नुकसान यह दर्शाता है कि हम अभी भी बाढ़ के लिए एक प्रभावी प्रक्रिया विकसित नहीं कर पाए हैं।
दरअसल, केंद्र सरकार के पास कोई ठोस बाढ़ प्रबंधन योजना नहीं है। नदियों के किनारे बने इलाकों को चिह्नित कर उन्हें सुरक्षित बनाने की कोई योजना नहीं है। बाढ़ वाले क्षेत्र में कितने लोग या घर हैं, इसकी कोई जानकारी नहीं होती। जब यह जानकारी ही नहीं है तो बाढ़ आने से पहले लोगों को सचेत वैâसे करें।
शहरों में नाला सफाई और गांवों में प्रभावी जल निकासी प्रणाली ध्वस्त हो चुकी है। मुंबई में नालासफाई के नाम पर इस वर्ष करोड़ों रुपए खर्च हुए, पर थोड़ी बारिश में भी इस वर्ष सड़कों पर पानी जमा हो गया। सिर्फ मुंबई ही नहीं, देश की लगभग सारी नदियों के किनारे अवैध निर्माण हुए हैं, इसका सीधा असर पड़ा है।
बाढ़ की समस्या को हल करने के लिए राज्यों के बीच सहयोग महत्वपूर्ण है। नदियों का जल विभिन्न राज्यों से होकर गुजरता है इसलिए एक राज्य में उठाए गए कदमों का प्रभाव दूसरे राज्य पर भी पड़ता है। इसलिए अंतरराज्यीय सहयोग से ही बाढ़ की समस्या का स्थायी समाधान निकाला जा सकता है, लेकिन केंद्र सरकार के पास इसके लिए समय ही नहीं है। सत्तारूढ़ दल के नेता हमेशा राजनीति और चुनाव में व्यस्त रहते हैं।
पहाड़ों से जिस तरह मिट्टी दरक रही है, उसके लिए ज़रूरी है कि हरित आवरण का विकास किया जाए। इससे नदियों के किनारे की मिट्टी के कटाव को रोका जा सकता है और जल के बहाव को नियंत्रित किया जा सकता है।
बाढ़ की समस्या को समझने और उसके समाधान के लिए जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का अध्ययन करना भी आवश्यक है।
बाढ़ की समस्या भारत में एक विकराल समस्या बन गई है। इसके समाधान के लिए प्रभावी बाढ़ प्रबंधन योजना, चेतावनी प्रणाली में सुधार, जल निकासी प्रणाली का विकास, अवैध निर्माण पर रोक, जन जागरूकता कार्यक्रम, अंतरराज्यीय सहयोग, हरित आवरण का विकास और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का अध्ययन जैसे कदम उठाने की ज़रूरत है। केवल तब ही इस समस्या से प्रभावी रूप से निपट सकते हैं और देश की जनता को सुरक्षित रख सकते हैं। केंद्र सरकार को इस दिशा में गंभीरता से सोचना होगा और ठोस कदम उठाने होंगे, ताकि भविष्य में बाढ़ से होने वाले नुकसान को कम किया जा सके।
(लेखक कई पत्र-पत्रिकाओं के संपादक रहे हैं और वर्तमान में राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय हैं)