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असुविधा के लिए खेद है! …कृपया ध्यान दीजिए, रेल मंत्रालय से २५ साल पहले छूटी ‘कवच’ एक्सप्रेस १०० साल बाद पहुंचेगी गंतव्य पर

 अनिल तिवारी
एक और भीषण रेल हादसा हो गया। कितने लोगों की जान गई, खुद रेलवे प्रशासन को पता नहीं है। पता होगा भी तो वो शायद वो बताना नहीं चाहेगा। बालासोर हादसे के बाद भी तथ्यों के साथ लुका-छिपी का ऐसा ही लंबा खेल चला था। परिणाम यह हुआ कि आज तक देश को उस हादसे का कोई साफ-साफ कारण पता नहीं है और जब कारण पता न हो या बताया ही न गया हो तो जनता के पास बार-बार संवेदनाएं व्यक्त करने के अलावा कोई पर्याय शेष नहीं बचता। भगवान न करें कि कुछ ही दिनों में हमें फिर एक बार भारी मन से किसी अन्य हादसे पर संवेदना व्यक्त करनी पड़े। इन दिनों जिस तरह से रेलवे का निजाम चल रहा है, उससे तो इसकी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। इस पर तो केवल रेलवे की शैली में ‘असुविधा के लिए खेद’ ही व्यक्त किया जा सकता है।
खैर, यह बात सोलह आने सच है कि जब तक सरकार रेल हादसों की जवाबदेही तय नहीं करेगी, तब तक केवल संवेदना व्यक्त करने के अलावा हमारे पास कोई चारा शेष नहीं बचेगा। इसलिए आए दिन होनेवाले छोटे-बड़े रेल हादसों पर जब तक अस्पष्टता रहेगी, उसका कोई समाधान खोजा नहीं जा सकेगा। हर बार जनता के कानों में गूंजेगा तो केवल ‘कवच-कवच और कवच’ का शोर।
आखिर यह कवच है क्या? दरअसल, ‘कवच’ एक ऐसी प्रणाली है जो रेल गाड़ियों के हेड ऑन कॉलिजन (आमने-सामने की टक्कर), रियर कॉलिजन (पीछे से होनेवाली टक्कर) और साइड कॉलिजन (डिरेलमेंट के समय अगल-बगल के ट्रैक से जानेवाली रेलगाड़ियों की टक्कर) रोकती है। दरअसल, यह रेलवे का एंटी कॉलिजन सिस्टम है। यह एक तरह का ऑटो पायलट है जो कॉलिजन तो रोकता ही है, साथ ही सिग्नल ओवरशूट होने की दशा में लोको इंजिन को खुद-ब-खुद ब्रेक भी लगाता है और समय-समय पर पायलट को सतर्क भी करता है।

समय, समय और कितना समय?
केवल कवच से नहीं मिलेगी दुर्घटना रोकने में आत्मनिर्भरता

एंटी कॉलिजन सिस्टम का डेमोनस्ट्रेशन २००१-०२ में ममता बैनर्जी के रेल मंत्री रहते, किसी वक्त हुआ था। आज उस डिवाइज के डेमो के तरीकबन २२ वर्षों बाद भी हम रेल हादसों से जूझ रहे हैं। तमाम मंचों पर और संभवत: प्रत्येक हादसे के बाद राजनैतिक हलकों में यह सवाल उठता है कि यह सिस्टम, जिसे ‘कवच’ का नाम दिया गया था, आखिर है कहां? इसे लागू करने में कितना समय लगेगा? अब तक यह संपूर्ण भारतीय रेलवे में स्थापित क्यों नहीं हुआ? तो जवाब में तर्क कम, कुतर्क ज्यादा दिए जाने लगते हैं। खुद तत्कालीन रेल मंत्री रहीं ममता बैनर्जी जब दावा करती हैं कि उन्होंने इसके लिए ‘विजन-२०२०’ में भरपूर पैसा और समय सीमा का निर्धारण किया था, पूरी रूपरेखा तय थी, उस आधार पर २०२० से पहले ही इसे संपूर्ण भारतीय रेलवे में कार्यान्वित कर दिया जाना चाहिए था, तब भी ऐसा क्यों नहीं हुआ? क्यों नहीं हुआ कवच का ‘विकास’? यह यात्री सुविधा से जुड़ा पहला अहम मसला है जबकि इससे जुड़ा दूसरा सवाल है कि आज तक क्यों नहीं पुराने आईसीएफ के खतरनाक कोचों को रिटायर करके नए एलएचबी कोच सभी ट्रेनों में लगा दिए गए? कंचनजंगा एक्सप्रेस हादसे में भी आईसीएफ कोच की वजह से ही डिब्बे एक के ऊपर एक चढ़े हैं। इससे अंदेशा व्यक्त किया जा रहा है कि जान-माल की हानि अधिक हुई होगी। आईसीएफ कोचों के मामले में ऐसा होता ही है। एलएचबी कोच होते तो दुर्घटना की तीव्रता कम होती, तब क्यों नहीं कवच और कोच दोनों को लागू किया गया? जबकि इनका सीधा-सीधा वास्ता यात्रियों की सुरक्षा से है, उनकी जिंदगी और मौत से जुड़ा है। ऐसा क्यों नहीं हुआ तो शायद इसलिए कि केंद्र की नई सरकार की प्राथमिकताओं में इसका शुमार नहीं है। उसकी प्राथमिकताएं बदल गई हैं, उसे रोलिंग स्टॉक (रेल गाड़ियों) की सुरक्षा से ज्यादा स्टेशन के मेक ओवर (रंगाई-पुताई, पेड सर्विसेज और आलीशान इमारतें इत्यादि) में ज्यादा रुचि है। उसे नई तेज रफ्तार वाली वंदे भारत चलाने में रुचि है, फिर चाहे उसे दौड़ाने के लिए रेलवे ट्रैक पर जगह हो, न हो। चाहे वो अपने भारी-भरकम किराए की वजह से खाली ही चलें, चाहे उसके आगे-पीछे पैसेंजर ट्रेनों का भारी-भरकम रैला चलता रहे। रेलवे ने ठान ली है तो वंदे भारत चलेगी, सुरक्षा एक्सप्रेस नहीं। यह जानते हुए भी कि किसी पैसेंजर ट्रेन के आगे होने पर उड़कर तो कोई ‘वंदे भारत’ आगे निकल नहीं जाएगी! इसके लिए एक नए ट्रैक सिस्टम की जरूरत होगी, जबरन एक बड़ा निवेश इन सभी हाई स्पीड ट्रेनों पर हो रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि इस सत्य परिस्थिति से अवगत होते हुए भी इस पर इतना खर्च क्यों? क्यों यात्री सुविधाओं की कीमत पर बुलेट ट्रेनों पर भारी निवेश हो रहा है? जबकि निवेश की जरूरत सुरक्षा के मुद्दों पर है। तो जवाब यह है कि बुलेट ट्रेन पर जोर इसलिए है, ताकि इनकी प्रदर्शनी हो सके, प्रचार किया जा सके। इन्हें भुनाया जा सकता है।
बेशक, रेलवे स्टेशनों के मेक ओवर और वंदे भारत जैसी सेमी हाई स्पीड ट्रेनें चलाना समय की जरूरत है, परंतु उससे भी बड़ी जरूरत परंपरागत रेल प्रणाली पर निर्भर करोड़ों यात्रियों की सुरक्षा सुनिश्चित करना है। क्या यह केंद्र सरकार की गारंटी नहीं होनी चाहिए? जब इस गारंटी से ही प्रधानमंत्री मुंह मोड़ लें तब बालासोर और कंचनजंगा एक्सप्रेस जैसे हादसे तो होंगे ही। और हो भी रहे हैं। पिछले एक महीने में ही छोटे-बड़े १५ से २० हादसे हो चुके हैं।
दुर्भाग्य तो यह है कि बड़े रेल हादसे तो लोगों को याद रह जाते हैं पर इन हादसों के बीच प्रतिदिन होनेवाले छोटे और मझोले स्तर के हादसे चर्चा में भी नहीं आ पाते। चर्चा में यह बात नहीं आ पाती कि अपने आप में अनोखा, १ जून, २०२४ का वो हादसा, जिसमें ओवरहेड वायर के टूटकर कोच पर गिर जाने से लगभग ४५ लोग बुरी तरह झुलस गए थे, किसी की मौत हुई तो कोई जीवन भर के लिए कुरूप और अपाहिज हो गया था, अब उनका क्या होगा? क्यों हर बार ये सब भूले-बिसरे हादसों में समाविष्ट हो जाते हैं? क्यों इन्हें नजरअंदाज कर दिया जाता है? क्या इन पर प्रश्न नहीं होने चाहिए? बिल्कुल होने चाहिए! इसलिए यहां सवाल यह उठता है कि जब तक आलाकमान की यह नजरअंदाजी निरंकुश बनी रहेगी, तब तक बालासोर और कंचनजंगा जैसे हादसे होते ही रहेंगे और उन पर राजनीतिक गलियारों व टीवी पर कुछ घंटों की बहस चलेगी। फिर मामला, ‘कवच’, मानवीय भूल या किसी और कारण की आड़ में दबा दिया जाएगा।
आपने कभी गंभीरता से यह विचार किया है कि रेल हादसों के लिए जिम्मेदार ह्यूमन ऐरर, मैकेनिकल फेलियर और इंप्रोपर मेंटेनेंस को सुधारने के लिए इस सरकार ने आज तक क्या किया है? अपनी प्राथमिकताओं को सेफ्टी पॉइंट से सेल्फी पॉइंट तक क्यों ले गए हैं? नहीं न? तो हम आपको बता दें कि सुरक्षा पर किया गया खर्च अदृश्य होता है और दिखावे पर किया गया सदृश्य। यह दृश्य तब तक नहीं बदलेगा, जब तक सरकार की प्राथमिकताएं नहीं बदलेंगी और जब प्राथमिकताएं बदलेंगी तो चीजें भी खुद-ब-खुद बदल जाएंगी। केवल वंदे भारत और स्टेशन मेकओवर से परिस्थितियां नहीं बदल सकतीं। जब तक पैसेंजर सेफ्टी से हटकर स्टेशन मेकओवर प्राथमिकता रहेगी तब तक ट्रैक मेंटेनेंस और मैकेनिकल सिस्टम अपग्रेडेशन कहीं न कहीं प्रभावित होंगे ही। मेंटेनेंस पर फोकस और खर्च कम होगा तो हादसे बढ़ेंगे ही। इसलिए जब तक स्टाफ को टेक्नोलॉजी प्रâेंडली नहीं बनाया जाएगा, उनकी प्रॉपर ट्रेनिंग सुनिश्चित नहीं की जाएगी और जब तक पीरियोडिक वर्कशॉप का आयोजन कर इन मुद्दों पर प्रॉपर अटेंशन नहीं दिया जाएगा, रेल हादसों की तीव्रता बढ़ती ही चली जाएगी।
अत: अतीत में हुए हादसों से सबक लेना हमें हमारी पहली प्राथमिकता बनाना होगा। और दूसरी सुरक्षा की उपाय योजनाओं को लागू करना। हमें रेलवे सेफ्टी पर बनी काकोडकर समिति जैसी तमाम समितियों के तर्कसंगत सुझावों को लागू करना होगा। टेक्नोलॉजी को बेहतर बनाने की दिशा में कदम बढ़ाना होगा। इसी के साथ सिग्नलिंग सिस्टम को एडवांस बनाने व उसे हैंडल करनेवालों को भी एडवांस बनाना होगा। ह्यूमन ऐरर समेत हर मैकेनिकल फेलियर को खत्म करना होगा और उनसे निपटने के लिए प्लान ‘बी’, ‘सी’ और ‘डी’ तैयार रखने होंगे क्योंकि केवल एकमात्र ‘कवच’ आपकी सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर सकता, उसके लिए कई प्रयास एक साथ करने होंगे। ‘कवच’ तो खुद ही पहले से भारी देरी से चल रहा है। २२ साल पहले रेल मंत्रालय से चला ‘कवच’ यदि इसी रफ्तार से चलता रहा तो तय मानिए कि आगामी १०० वर्षों में भी वह अपने गंतव्य तक नहीं पहुंच सकेगा। संपूर्ण रेल प्रणाली को सुरक्षित नहीं कर सकेगा। तब तक देश का क्या होगा? यात्रियों की सुरक्षा का क्या होगा? क्या हम केवल संवेदनाएं ही व्यक्त करते रहेंगे। इसे राजनीति का मुद्दा बताकर अपना पल्ला ही झाड़ते रहेंगे या कभी संपूर्ण रेलवे के संपूर्ण रिफॉर्म पर भी काम करने के लिए सरकारों को बाध्य करेंगे।
बेशक, किसी भी रिफॉर्म में समय लगता है। पर कितना समय? समय की भी एक सीमा होती है। कब तक हम केवल समय-समय और समय का रोना रोते रहेंगे? कभी तो हमें हकीकत को स्वीकार करना पड़ेगा। अपनी गलतियों को मानना पड़ेगा और अपनी प्राथमिकताओं को नए सिरे से सुनिश्चित करके जनहित में, यात्रीहित में और देशहित में काम करना पड़ेगा। अन्यथा इन कानों में ‘असुविधा के लिए खेद है’ की गूंज गूंजती रहेगी और आंखों से आंसुओं की धार बहती रहेंगी।

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