सुरेश एस डुग्गर / जम्मू
है तो बड़ी अजीब बात, पर जम्मू-कश्मीर में यह पूरी तरह से सच है। कभी आपने ऐसे मतदाता नहीं देखे होंगें, जो बिना लोकसभा क्षेत्र के हों। यहां पर हैं। वे भी एक-दो सौ-पांच सौ नहीं, बल्कि पूरे सवा लाख। ये मतदाता जिन्हें विस्थापित कश्मीरी कहा जाता है। ये लोग उन लोकसभा तथा विधानसभा क्षेत्रों के लिए मतदान करते आ रहे हैं, जहां से पलायन किए हुए उन्हें ३४ साल का समय बीत चुका है।
देखा जाए तो कश्मीरी पंडितों के साथ यह राजनीतिक नाइंसाफी है। कानून के मुताबिक, अभी तक उन्हें उन क्षेत्रों के मतदाताओं के रूप में पंजीकृत हो जाना चाहिए, जहां वे रह रहे हैं। हालांकि, सरकार ऐसा करने के लिए तैयार नहीं है, क्योंकि वह समझती है कि ऐसा करने से कश्मीरी विस्थापितों के दिलों से वापसी की आस समाप्त हो जाएगी।
नतीजतन कश्मीर के करीब ६ जिलों के ४६ विधानसभा क्षेत्रों के मतदाता आज जम्मू में रह रहे हैं। इनमें से श्रीनगर जिले के सबसे अधिक मतदाता हैं। कहा जाता रहा है कि श्रीनगर जिले की ८ विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने वाले मतदाताओं का भविष्य इन्हीं विस्थापितों के हाथों में होता है, जिन्हें हर बार उन विधानसभा तथा लोकसभा क्षेत्रों के लिए मतदान करना पड़ता है, जहां अब लौटने की कोई उम्मीद उन्हें नहीं है। अब एक बार फिर उन्हें इन्हीं लोकसभा क्षेत्रों से खड़े होने जा रहे उम्मीदवारों को जम्मू या फिर देश के अन्य भागों में बैठकर चुनना है।
मुद्दों को नजर में रखकर डालते हैं वोट
उनकी पीड़ा यह है कि जम्मू में आकर होश संभालने वाले युवा मतदाताओं को भी जम्मू के मतदाता के रूप में पंजीकृत करने की बजाय कश्मीर घाटी के मतदाता के रूप में स्वीकार किया गया है। उन युवाओं को उन लोकसभा तथा विधानसभा क्षेत्रों के लिए इस बार मतदान करना पड़ेगा, जिनकी सूरत भी अब उन्हें याद नहीं है। हालांकि, चुनावों में हमेशा स्थानीय मुद्दों को नजर में रखकर मतदाता वोट डालते रहे हैं तथा नेता भी उन्हीं मुद्दों के आधार पर वोट मांगते रहे हैं, लेकिन कश्मीरी विस्थापित मतदाताओं के साथ ऐसा नहीं है, न ही उनसे वोट मांगने वालों के साथ ऐसा है। असल में इन विस्थापितों के जो मुद्दे हैं, वे जम्मू से जुड़े हुए हैं जिन्हें सुलझाने का वादा कश्मीर के लोकसभा क्षेत्रों के उम्मीदवार कर ही नहीं सकते। वैसे इतना जरूर है कि उनसे वोट मांगने वाले प्रत्याशी उनकी वापसी के प्रति अवश्य वादे करते रहे हैं।
नेताओं के वादों से ऊब चुके हैं
कश्मीरी विस्थापितों को अपनी वापसी के प्रति किए जाने वाले वादों से कुछ लेना-देना नहीं है। दरअसल, पिछले ३४ सालों में हुए अलग-अलग चुनावों में यही वादे उनसे कई बार किए जा चुके हैं। वायदे करने वाले इस सच्चाई से वाकिफ हैं कि आखिरी बंदूक के शांत होने से पहले तक कश्मीरी विस्थापित कश्मीर वापस नहीं लौटना चाहेंगे और बंदूकें कब शांत होंगी, कोई कह नहीं सकता। तालाब तिल्लो के विस्थापित शिविर में रह रहे मोती लाल बट अब नेताओं के वादों से ऊब चुके हैं। वे जानते हैं कि ये चुनावी वादे हैं, जो कभी पूरे नहीं हो पाएंगे। हमे वापसी के वादे से फिलहाल कुछ लेना-देना नहीं है। हमारी समस्याएं वर्तमान में जम्मू से जुड़ी हुई हैं, जिन्हें हल करने का वादा कोई नहीं करता है। ऐसा एक अन्य विस्थाति बीएल भान का कहना है।