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असंगठित मजदूरों की कमर टूटी! …काम मिले या न मिले, सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं

कल्याण में रोजगार की अनिश्चितता और संघर्ष
सामना संवाददाता / कल्याण 
दिहाड़ी मजदूर सुबह सात बजे ही घर छोड़ देते हैं। वे काम की तलाश में नाकों पर खड़े हो जाते हैं। तीन-चार घंटों के इंतजार के बाद कभी-कभी किसी मुकादम या निजी ठेकेदार से काम का बुलावा आ जाए तो ठीक, वरना खाली हाथ घर लौटना पड़ता है। काम की अनिश्चितता के बावजूद, रोज सैकड़ों कामगार व मजदूर नई उम्मीद के साथ नाकों पर खड़े रहते हैं और अपने परिश्रम का मूल्यांकन करते हैं। शहर के विभिन्न नाकों पर खड़े मजदूरों को काम मिल जाता है, लेकिन ये असंगठित कामगार हैं, इसलिए इन्हें सुरक्षा नहीं मिलती। न तो बीमा होता है और न ही स्वास्थ्य सुविधाएं। काम की जगह पर दुर्घटना हो जाए तो कोई गारंटी नहीं। फिर भी पेट की खातिर काम करना ही पड़ता है।
योजनाओं से वंचित
शहर के कुछ गिने-चुने स्थानों पर मजदूरों का बाजार लगता है, जहां सुबह काम की तलाश में मजदूरों की भीड़ रहती है। कुछ स्थानों पर कामगारों को काम मिलता है और उसी समय मजदूरी की दर तय होती है। केंद्र और राज्य सरकार की कई योजनाएं इन मजदूरों तक नहीं पहुंच पातीं। इसलिए, उन्हें इन योजनाओं का लाभ भी नहीं मिल पाता। केंद्र सरकार की ई-श्रम जैसी योजनाएं भी इन तक नहीं पहुंची हैं।
कल्याण के छत्रपति शिवाजी महाराज चौक, खडकपाडा, म्हसोबा चौक, नाना पावशे चौक, तिसगाव नाका और शहाड जैसे नाकों पर लगभग हजारों कामगार मजदूर रोजाना काम की तलाश में खड़े होते हैं। घरों की मरम्मत, इमारत निर्माण जैसे कामों के लिए दिहाड़ी मजदूरों की जरूरत होती है। ठेकेदार मजदूरी तय करके इन्हें काम पर ले जाते हैं। पेट की खातिर काम करने वाले मजदूरों को बारिश में मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। निर्माण क्षेत्र में २० से २५ प्रतिशत की गिरावट आई है, जिससे मजदूरों को बारिश में घर पर ही बैठना पड़ता है।
मजदूरों की मांग
कल्याण के ‘कल्याणकारी असंघटित कामगार संघटना’ के अध्यक्ष प्रशांत माली का कहना है कि इन असंगठित कामगारों के बल पर शहरों में बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी होती हैं। निर्माण व्यवसायियों को इन मजदूरों की मजदूरी बढ़ानी चाहिए। महाराष्ट्र सरकार को इन्हें हर महीने आर्थिक मदद देनी चाहिए ताकि उनके परिवारों को सहायता मिल सके।

मजदूरी की दर
मिस्त्री – १२०० रुपए
लेबर – ८०० रुपए
महिला लेबर – ६०० रुपए

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