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आज और अनुभव : खानपान का वैभव सब तुमसे आता… जय सासू माता

कविता श्रीवास्तव

स्कूल कॉलेज की छुट्टियों का अंतिम दौर चल रहा है। कुछ दिनों में स्कूल-कॉलेज दोनों खुल जाएंगे। इन दिनों सैर-सपाटे के साथ घर में खान-पान के विशेष दौर भी चल रहे हैं। सुबह-सुबह ही सासू मां का आगमन हुआ। वो ज्यादातर तीसरी मंजिल पर जेठजी के यहां ही रहती हैं। जब हमारे यहां पांचवीं मंजिल पर आती हैं तो मौके पर जो बना है, वह उन्हें परोस देती हूं। जब वो सुबह-सुबह में पधारीं तो पतिदेव के नाश्ते का दौर चल रहा था। सासू मां ने पूछा क्या बना है? मैंने जो सब्जी बताई, उन्हें पसंद नहीं आई। उन्होंने कहा कि लहसुन-मिर्च की चटनी पीस दो, उसमें सरसो का तेल मिलाकर उन्हें दिया तो उन्होंने नाचनी की रोटी के साथ बड़े चाव से नाश्ता किया। हमारी सासू मां का खान-पान पुराने दौर का और ग्रामीण सभ्यता का है। उन्हें खाने के साथ गुड़ की डलिया लगती है। उन्हें मीठी चाय पसंद है। चाय खूब अच्छे से पकी होनी चाहिए। उधर सासू मां की सेवा चल रही थी और दूसरी ओर हमारे साहबजादे लोग यानी बेटे और बेटी दोनों उठ गए थे। उन्हें सैंडविच चाहिए थी। उपर से हरी चटनी के साथ मेयोनीज, टोमेटो केचप और सेजवान चटनी भी। इन सबके बगैर तो बच्चे कुछ खाना ही पसंद नहीं करते और माता जी को यह सब बिल्कुल पसंद नहीं है। इधर पतिदेव हैं उन्हें कुछ और ही चाहिए होता है। इस तरह का तालमेल बनाकर रसोई संभालना मेरे ख्याल से हर गृहिणी के लिए बड़ा ही चुनौतीभरा दायित्व है, लेकिन गृहिणियां अपनी कार्य कुशलता से ये सब बखूबी संभाल लेती हैं। हम देखते हैं कि आज के दौर में बच्चे उन पुराने व्यंजनों को तवज्जो नहीं देते, जो हम बड़े प्रेम से बनाते हैं, जो पौष्टिकता और स्वास्थ्य की दृष्टि से ज्यादा बेहतर हैं। हालांकि, मैंने अपने बच्चों को ऐसी चीजों के बारे में अभ्यस्त बना रखा है और वे देसी व्यंजन खाने से इनकार नहीं करते। मुझे सासू मां ने ऐसे ढेर सारे व्यंजन सिखाए हैं, जो पुरानी परंपराओं के अनुरूप हैं। हमारी सासू मां आज भी सरगर्मी से अचार बनाने की बड़ी शौकीन हैं। गर्मी के दिनों में आम का मीठा चुंदा, मसालेदार अचार और भरी हुई मिर्ची के अचार वे बड़े शौक से हर साल बनवाती हैं। मुझे उनका हाथ बटाना पड़ता है। मेरा बचपना गांव में बीता है इसलिए मुझे इसका अच्छा अनुभव है, इसकी आदत भी रही है। सासू मां जब कहती हैं, तब उन्हें हरी मटर पीसकर कढाई में छौंक लगाकर उत्तर भारतीय व्यंजन `निमोना’ बनाकर देना पड़ता है, जो पूरे घर को बहुत पसंद आता है। इसी तरह गूंथे हुए आटे को बेलकर उसके टुकड़े काटकर या छोटी-छोटी रोटियां बेलकर उन्हें मोड़कर फूल बनाकर दाल में डालकर दलफारा या दालढोकली बनवाने का सासू मां का अलग अंदाज है। उन्हें बिना दही वाली शुद्ध बेसन की मोटी कढ़ी भी बहुत पसंद है और उसमें बेसन की पकौड़ी होना अनिवार्य है। उस पकौड़ी को वो फुलौरी कहती हैं। हरे मटर और आलू का `सलोनी’ या `घुघरी’ भी वह शौक से बनवाती हैं। आपको सुनकर ताज्जुब होगा कि `सलोनी’ के लिए हरी मिर्च, लहसुन का मसाला हमारी ८३ वर्षीया सांसू मां आज भी अपने पुराने सील-बट्टे पर स्वयं अपने हाथ से पीसती हैं। उनके हाथ से बनी `सलोनी’ का गजब व अद्भुत स्वाद सबकी जीभ लपलपा देता है। उसे पूरा घर बड़े चाव से खाता है। माताजी को हर खाने में तेज नमक लगता है। इसके लिए उन्हें अलग से नमक देना पड़ता है। हमारी सासू मां कभी भी बासी भोजन नहीं करती हैं। वे हमेशा ताजा भोजन करती हैं। हर शनिवार को खिचड़ी जरूर बनवाती हैं। यह लगभग हर उत्तर भारतीय परिवार में होता है। हमारे यहां सासू मां का सख्त निर्देश है कि हम हर एकादशी को चावल नहीं बना सकते, लेकिन हर पूर्णिमा को वो खीर बनवाती हैं और खिड़की पर रखवाती हैं, ताकि चांद की रोशनी उस पर पड़े, तब उसका सेवन हो। इससे शीतलता आती है। मुझे आज भी याद है कि जब मेरी बेटी पैदा हुई थी, तब हमारी सासू मां ने बड़े शौक से गोंद, सोंठ, मखाना, हल्दी, देसी घी, बादाम, पिस्ता, काजू, किशमिश, छुहारा, गरी, खसखस, चिरौंजी व अन्य सामग्रियों को मिलाकर बनाया गया लड्डू, जिसे उत्तर भारत में `सेठौरा’ कहा जाता है बनवाकर दिया था। वह पौष्टिकता और ऊर्जा प्रदान करता है। इसी तरह धनिया पाउडर, गुड़, शहद, और ड्राई प्रâूट को पीसकर देसी घी में भूनकर पौष्टिक पेय पदार्थ `अछवानी’ भी वो बड़े शौक से बनवाती हैं। इसी तरह भीगे चने की दाल को हल्का दरदरा कर उसमें मसाले मिलाकर और उसे गुंथे हुए चावल के आटे की छोटी रोटियों में भरकर गुजिया की तरह बनाकर पानी में उबालकर बना हुआ `गोइंठा’ आजकल के बच्चों को भी पसंद आता है। पूजा के समय भगवान को भोग लगाने के लिए विशेष व्यंजन भी मुझे सासू मां ने सिखाए हैं। पेट दर्द होने पर नाभि में हींग लगाने, अजवाइन का उबला हुआ पानी पीने को देने, मुंह फीका होने पर नींबू को तवे पर सेककर काली मिर्च और नमक लगाकर जीभ पर चाटने, कान दुखने पर हल्का गर्म तेल डालने और ऐसे ढेर सारे घरेलू नुस्खे आज भी हमारे बूढ़े-बुजुर्गों के पास खजाने के तौर पर उपलब्ध हैं। ये सारे संस्कार, तहजीब और रहन-सहन के सलीके आजकल की नई पीढ़ी के लोगों को जरूर सीखनी चाहिए इसीलिए जहां भी बूढ़े-बुजुर्ग मिलें उनका आदर सत्कार करना चाहिए। उनसे कुछ न कुछ ज्ञान अर्जन करने की कोशिश करनी चाहिए, फिर चाहे वह अपनी माताजी हों या अपनी सासू माता जी हों।
(लेखिका स्तंभकार एवं सामाजिक, राजनीतिक मामलों की जानकार हैं।)

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