विमल मिश्र
मुंबई के इतिहास के नृशंसतम आतंकवादी हमलों का साक्षी रहा है तो भीषण प्राकृतिक आपदाओं का भी। पर कोविड काल की त्रासदियों की इस शहर पर आई किसी भी आफत से कोई तुलना नहीं की जा सकती। पांच वर्ष पहले इन्हीं दिनों कोरोना ने चीन में पहली दस्तक दी थी और काल दूत बनकर दुनिया में छा गया था।
इंटरकॉम पर हाउसिंग सोसायटी से फोन था- पुराने अखबार चाहिए। जब घर पर हाउस मेड्स, अखबार और दूधवाला- सभी का आना बंद था, मैसेज आया- नीचे आ जाइए। विधायक जी ने सब्जी-फल वाले का प्रबंध किया है। दस दिन से आलू, प्याज और टमाटर खा-खाकर बेरस हुई जुबान ने कदम जबरदस्ती उठवा दिए। मार्च, २०२० लगे कोरोना लॉकडाउन में दस दिन में पहली बार दरवाजे खोले थे। देखा, हमारे दिए अखबारों की चिप्पियों का बंडल लिफ्ट के ठीक बगल की दीवार पर कील से बंधा था- इस समझाइश के साथ कि इसी चिप्पी को पकड़कर दरवाजा खोलना और फ्लोर पर जाकर सीधे बगल की डस्टबिन में डाल देना।
कोविड-१९ के ये शुरुआती दिन थे, जब लंबे अंतराल के बाद नीचे उतरते ही सारी परिचित चीजें बेगानी लगने लगतीं। होमगार्ड-पुलिस वाले और विशेष पास लेकर निकले फ्रंटलाइन वर्कर्स गुजरते हुए आप डरा करते। एकमात्र सांत्वना थी घर के नीचे वाली रौनकदार सड़क, जिस पर भी अब खौफनाक सन्नाटा पसरा था। नाइट कर्फ्यू के सन्नाटे को चीरती पुलिस की साइरन वाली गाड़ी, किसी मरीज को लेने आई एंबुलेंस या कोरोना मृतक को लेने आई शववाहिका खौफ को और बढ़ा देती।
‘घर-घर ‘वर्चुअल ऑफिस’ खुल गए और ‘वर्क फ्राॅम होम’ चलने लगा। सोसायटी के वाट्सअप अब अशुभ समाचारों का उगालदान बन गया था- ‘अमुक फ्लैट वाला अस्पताल में है’, ‘अमुक होम क्वारंटाइन में’ या ‘अब-तब की हालत में’। एक दिन ऐसा आया, जब छोटे बेटे को छोड़कर हमारा पूरा परिवार भी ‘पॉजिटिव’ होकर इस नामुराद बीमारी की गिरफ्त में था। हमारा विंग अब कंटेनमेंट जोन में और सीलबंद था। महानगरपालिका वाले बीच-बीच में आते और धुएं का टॉनिक देकर चले जाते।
जिंदगी रुकी पड़ी थी और अफवाहें जोरों पर। ऐसे में छोटी-छोटी बातें ध्यान खींचतीं। सब्जी गरम पानी से धोई की नहीं! कचरा उठाने वाले ने मास्क और दस्ताना तो पहन रखा है! पास खड़ा अमुक खांस तो नहीं गया! नीचे के फ्लैट वाला अपनी सिगरेट का धुआं बालकनी पर क्यों उगल रहा है? पार्सल लाने वाला सुरक्षित दूरी पर तो खड़ा है! हैंडवाश खत्म तो नहीं हो गया? पल्स ऑक्सीमीटर जरा ऊपर-नीचे होते सांस अटक जाया करती।
कोरोना की शुरुआत चीन से हुई। मुंबई में इसका हल्ला २०१९ के आखिरी महीनों से ही मचने लगा था। ३ फरवरी, २०२० को मुंबई महानगरपालिका ने चीन, हांगकांग, ब्रिटेन आदि देशों से आनेवाले विमान यात्रियों की बुखार, जुकाम, खांसी सरीखे लक्षणों की जांच से इसके रोकथाम की शुरुआत की थी। ११ मार्च को दुबई से आया एक बुजुर्ग दंपति पहली बार कोरोना वायरस से संक्रमित पाया गया, जिसे संक्रामक रोगों के कस्तूरबा अस्पताल में भेजकर पृथक कर दिया गया। स्थिति की भीषणता को देखते हुए ‘वॉर रूम’ बने और आरटी-पीसीआर टेस्ट करने का अधिकार प्राइवेट लेबोरेटरीज को भी दे दिया गया। मई से अक्टूबर के बीच नौबत यहां आ पहुंची कि अस्पतालों में जगह ही नहीं बची। फरवरी, २०२१ से कोरोना की दूसरी लहर आई, इस बार और हाहाकारी। पहली लहर जहां धारावी और वर्ली कोलीवाड़ा सरीखे घनी आबादी वाली झोपड़पट्टियों और चॉलों में केंद्रित थी, इस बार इसने बहुमंजिली इमारतों को मुख्य निशाना बनाया। तीसरी लहर में तो ऐसी इमारत वालों की तादाद बढ़कर ८०-९० प्रतिशत हो गई। दर्द और लापरवाही की सिहरा देनेवाली कहानियों के बीच बीमारी का पता लगने और मौत के बीच फासला दूसरी लहर में दिनों से घटकर घंटों तक रह गया। न डॉक्टरों के पास पर्याप्त समय था, अस्पतालों में मरीजों की लिए आईसीयू बेड, ऑक्सीजन, वेंटिलेटर, रेमडेसिविर इंजेक्शन व दूसरी दवा और साधन। २०२१ में सरकार की राष्ट्रीय वैक्सीनेशन योजना शुरू हुई, जो बूस्टर डोज के साथ खत्म हुई। २०२२ में ओमायक्रॉन पैâला और सुना कि इस बीच तीसरी और शायद चौथी लहर भी आईं।
रुक गई लाइफलाइन
लोकल ट्रेन और बेस्ट की बसें- जो मुंबईकरों की पहली साथी हैं-अब बेगानी सी लगने लगी थीं। महीनों पूरी तरह बंद रहने के बाद जब ये अत्यावश्यक सेवाओं के लिए सीटों पर सोशल डिस्टेंसिंग मार्कर के साथ खुलीं तो जिसके मुंह पर देखो चेहरे पर मास्क और हाथों में सैनेटाइजर। विंडो सीट्स की पूछ और बढ़ी और फोर्थ सीट के लिए झगड़े होने बंद हो गए। बसों में स्टैंडी को अनुमति नहीं थी और टैक्सियों में दो से अधिक कोई बैठ नहीं सकता था। वेतन का बड़ा हिस्सा अब ऑटो और टैक्सी पर खर्च होने लगा। हाथों पर ‘होम क्वारंटाइन’ का स्टैंप देखते ही साथी यात्रियों के चेहरे पर भय पसर जाता। मुंह खुला देख लोग बिदकते और अगर कोई खांस दे तब तो मानो शामत। तापमान और ऑक्सीजन लेवल के लिए थर्मल स्क्रीनिंग थी ही, स्टेशनों पर एंटीजन जांच भी होने लगी। हरसंभव सामान को डीप क्लीन और सैनिटाइज किया जाने लगा था। हवाई अड्डों पर घुसने और बाहर निकलने के पहले आरटी-पीसीआर जरूरी शर्त थी। बाहरगांव की ट्रेनों से आए यात्रियों को जहां स्टेशनों पर लाइन बनाकर कोरोना की निगेटिव रिपोर्ट दिखाने और क्यूआर कोड स्वैâन होने पर ही बाहर जाने की अनुमति मिलती थी, वहीं लोकल यात्रियों को वैक्सीन सर्टिफिकेशन दिखाना अनिवार्य था। इसमें आवागमन प्रतिबंधित होने के कारण बसें बदल-बदल के चार से पांच घंटे रोज आने-जाने में व्यर्थ करने से आजिज होकर नकली आईडी व पास का चलन बढ़ा और जेब में जुर्माना रखकर यात्री खुलेआम बेटिकट घूमने लगे।
कफन, आंसू और कंधा
मुंबई में इन दिनों जहां देखो, केवल दु:ख और संत्रास की कहानियां थीं। अखबार बंद हो जाने से उनके पीडीएफ वर्जन की आदत डाली, जो केवल और केवल कोरोना की खबरों से ही भरे थे। महामारी की इस सूनामी में सोशल मीडिया पर कोई पोस्ट किसी परिचित चेहरे को फोटो के साथ देखते ही मन आशंका से धकधका उठता था। लॉक डाउन के बाद करीब २० लाख कुशल-अकुशल मजदूर मुंबई के दूध वाले, सब्जी व फल वाले, टैक्सी व ऑटोरिक्शा वाले, धोबी व लांड्रीवाले, फरसाण वाले, सैलून वाले, हमाल व ड्राइवर, दुकानदार, मंदिरों के पुजारी, छोटे-मोटे काम करनेवालों के साथ अपने परिवारों के साथ सरकार द्वारा चलवाई मजदूर विशेष ट्रेनों व बसों से, वाहन जुटाकर, साइकिल से या पैदल ही उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और केरल के अपने गांवों में चले गए। इससे देश की आर्थिक राजधानी में आर्थिक गतिविधियां पूरी तरह ठप पड़ गर्इं।
कोरोना जीवन की सबसे विकट परीक्षा थी, जिसमें हमारी कोशिशें ही हमारी दवा बन गर्इं और आशा हमारा ऑक्सीजन। मतलब कि इस दुनिया में जहां लोगों के पास अमूमन जिंदा लोगों के लिए भी लम्हा खर्च करने की फुरसत नहीं हुआ करती, आम लोग कोरोना से दम तोड़ रहे अनजान लोगों के लिए अपने व्यस्त समय के घंटों जर्द कर रहे थे। कफनखसोटी के जमाने में मरने वालों की अंतिम यात्रा के लिए कफन और कंधा पेश करते हुए।
कोरोना की खबरें आज भी सुनने में आती हैं, पर जैसे कोई आम बीमारी। सब कुछ वैसा हो गया है, जैसे कोरोना नाम की नामुराद चीज कभी हुई ही नहीं। कोरोना सिर्फ दो साल पहले तक की बात है, पर सुनो तो लगता है किस्से-कहानियों की तरह वह दु:स्वप्न, जो सीना चीरने वाले अनगिनत घाव दे गया और कुछ सीखें भी।