अजय भट्टाचार्य
बिहार में लगातार पुल गिरने के मामले सामने आ चुके हैं। हाल ही में अररिया जिले में भी एक पुल ने जल समाधि ली है। फारबिसगंज विधानसभा क्षेत्र के अम्हारा पंचायत के वार्ड नंबर १३ में गोपालपुर से मझुआ जाने वाले रास्ते पर बना पुल गिर गया है। इस पुल का निर्माण २०१७ में ग्रामीण कार्य विभाग द्वारा करवाया गया था। विभागीय अधिकारियों को पुल निर्माण में खामियों की सूचना दी गई थी, लेकिन कोई ध्यान नहीं दिया गया। अब पुल ध्वस्त हो गया है। पुल लगभग २५ मीटर लंबा था और इसका निर्माण सीमांचल कंस्ट्रक्शन कंपनी द्वारा किया गया था।
इससे पहले अररिया में बकरा नदी पर बना पुल भी ध्वस्त हो गया था। १२ करोड़ रुपए से इस पुल का निर्माण किया गया था। हैरानी की बात है कि उद्घाटन भी नहीं हुआ था। उससे पहले ही इसके गिरने पर काफी हंगामा मचा था। बिहार में पिछले १० साल में कई पुल गिर चुके हैं। भ्रष्टाचार को लेकर लोग कई बार आवाज उठा चुके हैं, लेकिन कोई संतोषजनक जवाब सरकार से नहीं मिला। पुल गिरना कहीं न कहीं भवन निर्माण विभाग में पैâले भ्रष्टाचार की ओर इशारा करता है। भूमि जांच में गड़बड़ी और घटिया निर्माण सामग्री के कारण पुल गिरने के कई मामले बिहार में सामने आ चुके हैं। जो सरकारी कामकाज की गुणवत्ता पर सवाल उठाते हैं।
सवाल उठता है कि कोई पुल यूं ही अपने आप क्यों गिर जाता है? कोई पुल एक झटके में नहीं गिरता। गिरने की प्रक्रिया बहुत पहले से चल रही होती है। सबसे पहले नेता गिरते हैं, फिर अधिकारी गिरते हैं, उसके बाद इंजीनियर गिरता है। इन तीनों के गिरने से फिसलन हो जाती है, सो ठेकेदार भी गिर जाता है। बात यहीं नहीं रुकती, इस फिसलन को देखकर आम जनता भी खुद को रोक नहीं पाती, देखादेखी वह भी गिरने लगती है। जब इतने लोग गिर जाते हैं तो पुल को भी अपने खड़े होने पर शर्म आने लगती है तो अपने निर्माताओं का साथ देने के लिए वह भी गिर जाता है। बात खत्म। ईमानदारी से कहा जाए तो हमारे देश में गिरना कभी लज्जा का विषय नहीं रहा। व्यक्ति जितना गिरता है, उसकी प्रतिष्ठा उतनी ही बढ़ती जाती है। आप फेसबुक, इंस्टा पर देख लीजिए, जो जितना ही गिरता है, उसकी रील उतनी ही वायरल होती है। सिनेमा की कोई अभिनेत्री जितना गिरती है, उतना ही आगे बढ़ती जाती है। यहां तक कि एक लेखक भी जब तक गिरता नहीं, ……तब तक अकादमी वगैरह में जगह बनाने से लेकर पुरस्कार, सम्मान पाने की श्रेणी में नहीं आता! जिस कलमकार में रीढ़ बची होती है वह ‘गिरकर उठे हुए लिक्खाड़ों’ के गिरोह में नहीं मिलेगा।
वैसे राजनीति के इस भक्तिकाल में दरबारी लिक्खाड़ पुल गिरने के भी लाभ गिना देंगे। अर्थशास्त्र की व्याख्या करते हुए बताएंगे कि जब पुल गिरेगा, तभी न दोबारा बनेगा। दोबारा बनेगा तो मजदूरों को काम मिलेगा। सीमेंट, बालू, सरिया के व्यापारियों का धंधा चलेगा। नेता, अधिकारी कमीशन खाएंगे तो पैसा बाजार में ही न देंगे। इस तरह पैसा घूम फिर कर जनता तक ही जाएगा, सो पुलों का गिरना जनता के लिए लाभदायक है। जिस आत्मविश्वास से ये दरबारी समझाते हैं उससे भी यह साफ हो जाता कि वे भी कम गिरे हुए नहीं हैं। हमारे देश में हर व्यक्ति अब गिरना चाहता है। वह केवल मौका तलाश रहा है। कब मौका मिले कि वह गिरे… पुल अकेले नहीं हैं, गिरने की यात्रा में बहुत कुछ गिर रहा है। वोट के लिए अधूरे मंदिर के उद्घाटित हुए मंदिर के गर्भगृह की छत से पानी गिर रहा है। गुलामी की निशानी को मिटाने की सनक से बनी नई संसद की छत टपक रही है।
पुल नदियों के दोनों तटों को जोड़ने का काम करते हैं। हमारे यहां तो आदमी को आदमी से जोड़ने वाले पुल कबके ढह गए हैं। हम जब उस पर दुखी नहीं हुए तो इस पर क्या ही दुखी होंगे। एक गिरे हुए व्यक्ति को गिरे हुए लोग विश्वगुरु बनाने को बेताब हैं। क्यों? क्योंकि अगले ने राजनीतिक, सांस्कृतिक, शाब्दिक, आर्थिक और नैतिक गिरावट के बाद ही उच्च पद पाया है। एक समय था, जब लोग गलती से भी गिरने से बचते थे। अब गिरने के मायने बदल गए हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और देश की कई प्रतिष्ठित समाचार पत्र-पत्रिकाओं में इनके स्तंभ प्रकाशित होते हैं।)