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बेबाक : लापरवाही की ‘पुख्ता’ जिम्मेदारी तो बनती है! …रेलवे की सुरक्षा से हुए हैं कई समझौते


अनिल तिवारी

रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव के इस्तीफे की मांग जोर पकड़ रही है। बालासोर के भीषण रेल हादसे के लिए उन्हें नैतिक तौर पर जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। यहां सत्ता पक्ष है कि वो उन्हें किसी भी तरह से दोषी मानने को तैयार नहीं है। सत्ता के गलियारों से लेकर, समाचार चैनलों और सोशल मंच तक उन्हें डिफेंड किया जा रहा है, उनकी काबिलियतें गिनाई जा रही हैं। दावा किया जा रहा है कि यह दुर्घटना रेलवे विभाग की खामी से नहीं, बल्कि किसी साजिश के चलते हुई है, जिसके लिए रेलवे के इलेक्ट्रॉनिक इंटरलॉकिंग सिस्टम से संभवत: किसी ने छेड़छाड़ की है। यदि ये दावे सच हैं तो ऐसे में मोटा-मोटी दो सवाल उठते हैं। पहला यह कि जब रेल मंत्री इतने काबिल हैं, पढ़े-लिखे और रेल मामलों के जानकार हैं तो यह हादसा हुआ कैसे? दूसरा यह कि जब रेलवे के सिस्टम से छेड़छाड़ संभव है तो उसे पुख्ता क्यों नहीं किया जा रहा है?
खैर, रेल मंत्री के इस्तीफे की मांग और दुर्घटना की पड़ताल करने से पहले जरूरी यह है कि यह दुर्घटना कैसे घटी, क्यों घटी और इसके कितने पहलू हैं, इन्हें जान लिया जाए। इन्हें समझे बिना दावों और दोषारोपणों का कोई तुक नहीं है।
बालासोर में शुक्रवार को हुई रेल दुर्घटना के दो पहलू हैं। पहला यह कि बहनगा स्टेशन की लूप लाइन (पार्किंग लाइन, जो अमूमन छोटे स्टेशनों पर मेन लाइन्स से हटकर होती है, जिन पर साइडिंग दी जाती है या किसी पैसेंजर ट्रेन को हाल्ट दिया जाता है) पर पहले से खड़ी एक मालगाड़ी से टकरा गई, वो डिरेल हुई और हादसा हो गया। दूसरा पहलू यह है कि डिरेल हुई पैसेंजर ट्रेन के डिब्बे जब मेन लाइन्स (अप और डाउन) दोनों पर बिखर गए तो उनसे विपरीत दिशा से आ रही ट्रेन टकरा गई और हादसे की भीषणता और भयंकर हो गई। जहां तक दुर्घटना के पहलू का सवाल है तो वहां पैसेंजर ट्रेन की मालगाड़ी से हुई टक्कर कई सवाल खड़े करती है। जैसे उस ट्रेन को जब मेन लाइन का हरा सिग्नल मिला तो वह लूप लाइन पर खड़ी मालगाड़ी से कैसे टकराई। वह लूप लाइन पर गई या उससे पहले ही डिरेल हो गई, जिससे हादसा हो गया। इन दोनों ही मामलों में रेलवे के इलेक्ट्रॉनिक इंटरलॉकिंग और डिरेलमेंट का मुद्दा है, जो निश्चित तौर पर रेलवे की इंफ्रास्ट्रक्चरल कमजोरी कही जा सकती है। यदि उक्त दोनों कारणों से यह हादसा हुआ है तो उसे रेलवे की लापरवाही ही कहा जाएगा, जिसकी जिम्मेदारी रेल मंत्री के अधीन है। जहां तक इलेक्ट्रॉनिक इंटरलॉकिंग का सवाल है तो पहले तो उसमें छेड़छाड़ करना आसान नहीं हो सकता। वो किसी भी तरह के माल फंक्शन पर वार्निंग देने की क्षमता से लैस होता है। यदि मान भी लिया जाए कि किसी ने उससे छेड़छाड़ की है तो ऐसे कमजोर सिस्टम पर आंखें मूंदकर क्यों रखी गईं? क्या इस लापरवाही की नैतिक जिम्मेदारी रेल मंत्री की नहीं है? अब बात करते हैं कि यदि यह हादसा डिरेलमेंट की वजह से हुआ है तो इस समस्या को सुलझाने का प्रयास क्यों नहीं हुआ। वो भी तब जब पिछले ही वर्ष लेखा महापरीक्षक (कैग) ने अपने रिपोर्ट में इसकी गंभीर चेतावनी दी थी और भारतीय रेलवे की डिरेलमेंट समस्या पर अधिक ध्यान देने व अधिक खर्च करने का सुझाव दिया था। रेल मामलों के जानकार किसी रेल मंत्री को तब इसकी गंभीरता का अंदाजा क्यों नहीं हुआ? इस सुझाव और चेतावनी के बावजूद क्यों डिरेलमेंट की समस्या को कम करने पर खर्च नहीं हुआ, जो ७५ प्रतिशत हादसों का कारण है। जब सेमी हाई स्पीड रेल के लिए रेल फंड उपलब्ध था तो क्यों सुरक्षा पर खर्च के लिए पैसा नहीं जुट सका? क्या यह भयंकर गलती नहीं है कि जिस देश में रेल नेटवर्क पर डिरेलमेंट की समस्या पर चेतावनी जारी हो गई है, उसे सुधारने की बजाय उस पर और तेज ट्रेनें चलाई जा रही हैं। वंदे भारत जैसी तेज ट्रेनें चलाना जरूरी है, पर उससे पहले ट्रैक को उसके अनुकूल बनाना भी उतना ही जरूरी क्यों नहीं है?
अब बात करते हैं दुर्घटना के दूसरे पहलू की, जहां तीसरी ट्रेन आकर पहले से दुर्घटनाग्रस्त ट्रेन से टकरा गई। यहां बार-बार ‘कवच’ का जिक्र आ रहा है। कवच मतलब एंटी कोलिजन डिवाइस। यदि यह डिवाइस मौजूद होता, तो निश्चित तौर पर तीसरी ट्रेन की टक्कर को रोका जा सकता था। यदि यह डिवाइस न भी हो तब भी ३-४ मिनट के अंतराल पर रही ट्रेन को रोकने के लिए कई पर्याय मौजूद थे। उसे हॉन्किंग (हॉर्न बजाकर) सिग्नल दिया जा सकता था। उसका सिग्नल लाल किया जा सकता था। उसे वायरलेस सिस्टम से सूचित किया जा सकता था, उसे पोर्टेबल टेलीफोन डिवाइस से सूचना भेजी जा सकती थी, या उसे सीयूजी (मोबाइल) फोन से चेताया जा सकता था। यदि यह सब नहीं हो सका या इसके लिए रेल कर्मियों को कोई ट्रेनिंग या मॉकड्रिल में कभी शामिल नहीं किया गया तब भी यह रेल मंत्री की नीतिगत कमजोरी है, जिसके लिए उन्हें जिम्मेदार माना जाना चाहिए। बेशक, देश के संपूर्ण रेल नेटवर्क को रातों-रात ‘कवच’ सिस्टम से लैस नहीं किया जा सकता। इस काम को कितनी ही तेजी से किया जाए तब भी उसमें कम-से-कम एक दशक और लाखों-करोड़ों रुपयों की राशि लगेगी। यह तुरंत संभव न भी हो तब भी अपनी समझदारी और नैतिक जिम्मेदारी का ‘कवच’ तो रेल मंत्री रेल विभाग को दे ही सकते थे। कैग की चेतावनी और रेल नेटवर्क की सत्य परिस्थिति का आकलन कर यदि उन्होंने यह कवच भारतीय रेल को दिया होता तो शायद यह दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटना नहीं हुई होती और शायद उनके इस्तीफे की मांग भी नहीं उठती!

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