मुख्यपृष्ठस्तंभमहा-संग्राम : क्या जाति-धर्म पर चुनाव लड़ना ठीक है?

महा-संग्राम : क्या जाति-धर्म पर चुनाव लड़ना ठीक है?

रामदिनेश यादव

आज धर्म और जाति पर चुनाव लड़े जा रहे हैं और आश्चर्य तो यह है कि जीते भी जा रहे हैं। इस पर देश की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने आश्चर्य व्यक्त किया है। इतना ही नहीं, उन्होंने कहा कि इस महंगाई में भारी-भरकम खर्च वाला यह लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए उनके पास पैसा नहीं है। देश के जिम्मेदार पद पर बैठी निर्मला सीतारमण का यह बयान नई बहस को जन्म दे दिया है। इसे लेकर तरह-तरह की बातें होने लगी हैं, कई सवाल उठने लगे हैं।
भारत लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश माना जाता है। यहां हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी लोग रहते हैं। भाईचारा का महत्त्व है। लेकिन पिछले कुछ सालों में देश में जातिवाद और धर्मवाद को बढ़ावा मिला है। राजनीतिक कारणों से इसे और हवा मिली है। स्थिति ऐसी है कि आज लोकसभा चुनाव में प्रत्याशियों को टिकट भी उनकी जातिगत और धार्मिक पृष्ठभूमि को देखकर दिया जा रहा है।
यदि नेहरू काल और मौजूदा पीएम मोदी काल की तुलना करें तो मोदी का राष्ट्रवाद उनकी पार्टी के मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस का राष्ट्रवाद है। कई इतिहासकार मानते हैं कि आरएसएस ने उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रवाद की जगह धर्म आधारित राष्ट्रवाद को अपनाया। लेकिन जातिगत भेदभाव को दूर करने के मामले में आरएसएस ने कोई ठोस भूमिका नहीं ली है। राजनीतिक जानकार सुधीर जोशी ने बताया कि आरएसएस के राष्ट्रवाद ने हिंदुत्व का नाम तो लिया है, लेकिन हिंदुत्व के नाम पर सिर्फ राजनीति करने का ही काम कर रही है। वहीं नेहरू काल में धार्मिक कार्यक्रमों से सरकार दूर रहती थी, जातिगत राजनीति का विरोध भी किया था। धर्मनिरपेक्ष का समीकरण लेकर आगे बढ़ी थी, जबकि मोदी सरकार धार्मिक मामलों में खुद आगे बढ़ रही है और इसका राजनीतिक उपयोग भी कर रही है। भाजपा धर्मवाद को अपना वोटबैंक मान रही है। लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश में इस तरह की राजनीति को वैसे तो स्थान नहीं मिलना चाहिए, लेकिन जब सरकार ही उसमें शामिल हो जाए तो अन्य से क्या अपेक्षा की जाएगी।
सर्वोच्च न्यायालय की सात सदस्यीय खंडपीठ ने भी अपने एक निर्णय में इसे गलत बताया था। कोर्ट ने कहा था कि जो नेता धर्म, जाति या भाषा के आधार पर वोट हासिल करने का प्रयास करे, उसे चुनाव लड़ने के लिए तुरंत अयोग्य घोषित कर दिया जाए। न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि मनुष्य और ईश्वर के बीच संबंध किंचित ही एक व्यक्तिगत राय है और इस तरह की गतिविधियों के प्रति राज्य की कोई निष्ठा नहीं होनी चाहिए। चुनावी प्रक्रिया एक धर्मनिरपेक्ष गतिविधि है। अत: धर्म की इसमें कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए। देश व राज्य के साथ धर्म का मिश्रण संवैधानिक रूप से उचित नहीं है।

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