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कविता: सदा हंसते-मुस्कुराते रहो

मैं क्या करता?

दुखों के भंवर में कोई सहारा नहीं है
तकलीफों के इस भंवर में घिरा हर कोई है
सोचता हूं में मेरे अराध्य राम
ना होते तो मैं क्या करता
प्रभु राम का सहारा ही मुझे
सब संकट से दूर कर देता है
वह तो केवट की नाव में
चढ़कर गंगा पार गए थे
तभी तो केवट के भव के पाप मिट गए थे
जब श्रीराम केवट की नाव में गए थे
शबरी की तपस्या का प्रतिफल मेरे राम थे
सुग्रीव की मित्रता का परिणाम मेरे राम थे
हनुमान की भक्ति की शक्ति मेरे राम थे
तभी तो मैं कहता हूं
प्रभु राम का सहारा ही
सब संकट दूर कर देते हैं
सोचता हूं मैं मेरे आराध्य
राम ना होते तो में क्या करता

– हरिहर सिंह चौहान, इंदौर, मध्य प्रदेश

सदा हंसते-मुस्कुराते रहो

बेकली बेकरारी का इजहार मत होने देना
अपने आंगन में कभी दीवार मत होने देना
खार कितना भी हो दिल-दिमाग सदा ठंडा रखना
शब्दों की चोट से खुद को घायल मत होने देना
हमारे जीवन में खलल पड़े जरा भी ठीक नहीं
गैरों का दिमाग घर में लागू मत होने देना
दुश्मनों की गलियों में तुम घूमते हो अच्छा है
जहर बुझी खंजरों को अपना मत होने देना
दुश्मनों की महफिलें यूं खुद ही उजड़ जाएंगी
यारों की नादानियों को अपना मत होने देना
जहां धर्म ईमान तवज्जो नहीं तो बेकार है
विपरीत गुण धर्म को कभी अपना मत होने देना
महफिल में सदा हंसते-मुस्कुराते रहो ‘उमेश’
ऐ दोस्त किसी और को बीमार मत होने देना

– डॉ. उमेश चंद्र शुक्ल

उमंग

समय की पीठ पर बैठा हूं
लगाम पकड़े हाथों में
पैर जमाए रकाबों पर
चलेगा मैं जिधर चाहूं
रुकेगा मैं जहां चाहूं
बिदक जब तक न ये जाए
छिटक जब तक न मैं जाऊं
करूं बस बातें हवाओं से
उड़ाते रजकण दिशाओं से
जीवन-गीत गढ़ूं गाऊं
नहीं यह दंभ नहीं मेरा
है विजयस्तंभ नहीं मेरा
जगत की रीति यही है
समय की प्रीति यही है
सहज कहना यही मेरा
रहें क्यों न समय के संग
भरें क्यों न निलय में रंग
हृदय मचलता मचल ले
समंदर की तरह उछल ले
बिंदास रहे क्यों न उमंग

– डॉ. एम.डी. सिंह

देर से हुई भोर

टूटी रिश्तों की डोर तो क्या
आज देर से हुई भोर तो क्या
रिश्ते मखमली कांटों का ताज
उनसे मिले जख्म ढेर तो क्या
अब न रंजिश न दुआ-सलाम
खास लम्हे ले गए गैर तो क्या
स्वार्थी आंच में पिघल गए रिश्ते
जज्बातों की नहीं खैर तो क्या
सारी गलतियां हमारी ही सही
आप ही निकले गैर तो क्या
राही हैं न जाने कहां पहुंचेंगे
मंजिल का नहीं छोर तो क्या
‘संजीव’ कड़वाहट दिल में क्यूं
छूटती सांसों की डोर तो क्या

– संजीव ठाकुर, रायपुर छत्तीसगढ़

मानव की तंग मानसिकता

कुछ मस्तक का संत्रास
कुछ हृदय की वेदना
कुछ उपेक्षा की ठेस
कुछ भावना पर चोट
कुछ संबंधों की घुटन
कुछ संयम की टूटन
कुछ जज्बात का दर्द
कुछ दिल का मर्ज
कुछ रिश्तों की खरोंच
कुछ भाग्य की ठोकरें
कुछ खामोशी का रंज
कुछ बेहोशी का दंश
कुछ नाज और नखरे
कुछ गिले और शिकवे
कुछ आड़े आती हेठी
कुछ समस्या की खेती
कुछ अतीत की चुभन
कुछ वर्तमान की जलन
कुछ यहां उखड़े खड़े
कुछ वहां बिखरे पड़े
जीवन को ये वैâसा ‘शाप’ है
चहुंओर ताप और पाप है
ये भी ‘मानव की तंग
मानसिकता’ का फल है
ना कि ‘विधि के विधान’
का ‘प्रतिफल’ है

– त्रिलोचन सिंह अरोरा

वृक्ष बचाओ विश्व बचाओ

कितना भी वह बलशाली हो
बदल सके ना प्रभु विधान,
वृक्षों के बिना संभव ही नहीं
मुक्ति पा जाएगा कोई इंसान!

-डॉ. मुकेश गौतम, वरिष्ठ कवि

दिन स्कूल के

खुल के खाते थे
जो मन आया गाते थे
कभी बेमतलब नाचते थे
कभी किसी को नचाते थे
खूब धूम मचाते थे
घर थे सबके अलग-अलग
पर रिश्ते लगते खून के
क्या दिन थे अपने स्वूâल के
मस्त थी अपने भी स्वूâल की पढ़ाई
अपनी क्लास में घर से लाते थे चटाई
किसी का नंबर ठीक-ठाक
किसी का अंडा गोल था
किसी का शनि गणित किसी का भूगोल था
थोड़े पल बेचैन बाकी फिर सुकून के
क्या दिन थे अपने स्वूâल के
अक्सर ही वो हौसला बढ़ाते थे
मुंशी जी दिन क्या रात को भी पढ़ाते थे
उनकी डांट भी अजीब थी
उनकी मार लाती और करीब थी
पता नहीं कौन लड़का अमीर
कौन लड़की गरीब थी
मस्ती हमेशा दिल में हस्ती भरी जुनून से
क्या दिन थे अपने स्वूâल के
कुछ मास्टर भी क्या अलख जगाते थे
जिसको पीटना है डंडा उसी से मंगाते थे
गलती मुताबिक बच्चों को भगाते थे
होमवर्वâ भूल जाने पर मुर्गा बनाते थे
किसी को हनुमान किसी को दुर्गा बनाते थे
लाजवाब थे वो करतब फिजूल के
क्या दिन थे अपने स्वूâल के
सप्ताहांत में बच्चे जितना शर्माते थे
मास्टर जी उनका कान उतना ही गर्माते थे
शनिवार कविता कहानी सुनाता हर बच्चा था
ना कर सके तो मार खाना भी पक्का था
कितने किस्से अब भी दिल में
उस फटे हुए पतलून के
क्या दिन थे अपने स्वूâल के
रातें लंबी और दिन छोटे होते थे
मन के सच्चे हरकतों से खोटे होते थे
दिल से चाव दिल से लगाव
ना कोई बाहरी दिखावा ना कोई बचाव
भूलते नहीं थे वादा एक बार कबूल के
पेड़ थे हम आम के दिखते रहे बबूल के
क्या दिन थे अपने स्वूâल के

– अनिल ‘अंकित’

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