द्विजेंद्र तिवारी मुंबई
दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और एक प्रमुख भू-राजनीतिक शक्ति होने के बावजूद, कनाडा में २०२५ के जी-७ शिखर सम्मेलन में भारत को देर से आमंत्रित किए जाने से कूटनीतिक और राजनीतिक हलकों में बहस छिड़ गई है। कुछ लोग इसे कूटनीतिक अपमान के रूप में देखते हैं और यह सुझाव दे रहे हैं कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह आमंत्रण अस्वीकार कर देना चाहिए।
न्यौते में देरी
अगर पुराना इतिहास देखें तो पिछले वर्ष इटली की प्रधानमंत्री जॉर्जिया मेलोनी ने इस सम्मेलन के दो महीने पहले ही अप्रैल में मोदीजी को फोन कर दिया था। २०२३ में भारत को जापान के हिरोशिमा में जी-७ शिखर सम्मेलन में काफी पहले आमंत्रित किया गया था। जर्मनी में २०२२ के शिखर सम्मेलन में भी दो महीने पहले भारत को आमंत्रण भेजा गया था।
हर वर्ष इन सात देशों में से कोई एक देश वर्ष भर के लिए एक जनवरी को अध्यक्षता ग्रहण करता है और उसके बाद मई या जून में शिखर सम्मेलन की तैयारी शुरू हो जाती है। विशेष आमंत्रित देशों को फरवरी से अप्रैल के बीच फोन जाने लगते हैं।
तो फिर इस वर्ष ऐसा क्यों हुआ कि मात्र एक सप्ताह पहले मोदीजी को फोन आया? क्या कनाडा में खालिस्तानियों की वजह से ऐसा हुआ? या फिर मोदीजी का वजन अंतर्राष्ट्रीय मंच पर कम हो गया? क्या यह चर्चा सही है कि तमाम डिप्लोमेटिक चैनल सक्रिय करने के बाद उनके पास कनाडा से फोन आया?
सच्चाई तो भारत और कनाडा की सरकारें जानें। भारत जैसी आर्थिक महाशक्ति को इन लोगों ने समझ क्या रखा है? ये जी-७ वाले क्या समझते हैं कि भारत के प्रधानमंत्री के पास काम-धंधा नहीं है? इतने हलके में ले रहे हैं कि जब बुलाओ, दरबार में हाजिर?
भारत से कम आर्थिक शक्ति वाले देशों यूक्रेन, दक्षिण अप्रâीका, ऑस्ट्रेलिया, मैक्सिको, ब्राजील और दक्षिण कोरिया को दो महीने पहले ही निमंत्रण भेजे जा चुके थे। घर-आंगन सज गए और बारात आने ही वाली है, तब भला किसी को न्यौता दिया जाता है?
रूस और चीन
इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है कि दुनिया के दो बड़े ताकतवर देश चीन और रूस इस शिखर सम्मेलन में कभी नहीं बुलाए जाते। ये दोनों देश इसकी परवाह भी नहीं करते। जी-७ सम्मेलन में हमेशा चीन की विस्तारवादी नीति पर चर्चा और आलोचना होती है, पर चीन हमेशा अमीर देशों के इस जमावड़े की खिल्ली उड़ाता रहा है।
यह तय है कि इस बार भी चीन की आलोचना होगी और रूस के खिलाफ यूक्रेन को सहयोग देने का प्रस्ताव पास होगा तो ऐसे सम्मेलन में जाने के लिए यह उतावलापन क्यों, जहां मित्र देश रूस के खिलाफ प्रस्ताव पास किया जाना है? क्या इस सम्मेलन में शामिल होने से अमेरिका पाकिस्तान को मदद करना बंद कर देगा? पश्चिमी देशों के ग़ुलाम आईएमएफ और विश्व बैंक भर-भरकर पाकिस्तान को आर्थिक सहायता दे रहे हैं और भारत के विरोध को नजरअंदाज किया जा रहा है।
अमीर देशों के इस सम्मेलन में मोदीजी को फोटो-ऑप के सिवा कुछ नहीं मिलनेवाला। विदेशी राष्ट्र प्रमुखों के नकली मुस्कराहटों वाले ऐसे कई एलबम अब तक तैयार हो गए होंगे। पर सच्चाई यह है कि वक्त पड़ने पर ख़ुद ही शस्त्र उठाना पड़ता है। इनमें से कोई देश मदद के लिए आगे नहीं आनेवाला।
संगठन की शक्ति
दूसरी तरफ रूस जैसे मित्र देश भी अब कटे-कटे से लगते हैं। दुनिया के सभी देशों से संबंध बनाए रखना अच्छी रणनीति है, पर इसके लिए अपने करीबी मित्र देशों की भावनाओं का भी ख्याल रखना बहुत जरूरी है।
भारत कई क्षेत्रीय संगठनों का सदस्य है जो दक्षिण एशिया, एशिया-प्रशांत और हिंद महासागर क्षेत्र में सहयोग को बढ़ावा देने में भूमिका निभाते हैं। अगर हम उन प्रमुख क्षेत्रीय संगठनों की सूची देखें, जिनमें भारत की सदस्यता है, उसके बाद मई २०२५ में भारत-पाकिस्तान संघर्ष के दौरान उनकी भूमिकाओं का विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि इन संगठनों की तरफ से कोई उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया नहीं हुई तो ऐसे संगठन और उनकी सदस्यता का क्या उपयोग? क्यों न भारत, रूस और अन्य समविचारी देश मिलकर ऐसा सैन्य गठबंधन बनाएं, जो नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन (नाटो) जैसा हो। एक देश पर हमला हो तो सभी साथी देश मिलकर मुकाबला करें। फोटो एलबम से फुरसत मिले तो इस पर भी मोदीजी ध्यान दें।
(लेखक कई पत्र-पत्रिकाओं के संपादक रहे हैं और वर्तमान में राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय हैं)