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संपादकीय : ६०० वकीलों का ‘संघ’!

देश के सबसे महंगे वकील हरीश साल्वे समेत ६०० वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखा है। उनके पत्र से स्पष्ट है कि ये सभी वकील एक विशेष विचारधारा और वर्तमान विवादास्पद राज्य व्यवस्था के अप्रत्यक्ष समर्थक हैं। ६०० वकीलों के ‘संघ’ ने अपने पत्र में कहा है कि न्यायपालिका मुट्ठीभर लोगों के हाथों में है। कुछ विशिष्ट लोगों का समूह न्यायपालिका पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहा है। वकीलों का ‘संघ’ पत्र में आगे क्या कहता है, यह महत्वपूर्ण है। पत्र में कहा गया है, ‘भ्रष्टाचार के मामलों में शामिल नेताओं और लोगों द्वारा अदालत पर दबाव बनाने का प्रयास किया जा रहा है। एक समूह द्वारा न्यायपालिका पर दबाव बनाने का जानबूझकर प्रयास किया जा रहा है। राजनीतिक और भ्रष्टाचार के मामलों में फंसे लोगों द्वारा न्याय व्यवस्था पर दबाव डालने का प्रयत्न किया जा रहा है और न्यायालय को धमकाया जा रहा है।’ वकीलों का पत्र एक स्वांग है और उसका सूत्रधार कोई और है। वकीलों के पत्र पर तुरंत संज्ञान लेते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, ‘डराना-धमकाना कांग्रेस की संस्कृति है।’ यह आम चुनाव के मद्देनजर मोदी द्वारा शुरू किया गया खेल है। ये सब कोर्ट पर दबाव बनाने के लिए किया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा इलेक्टोरल बॉन्ड मामले में निष्पक्ष एवं देशहित में दिए गए निर्णय के बाद मोदी सरकार काफी हद तक नग्न हो गई है। तब से सुप्रीम कोर्ट का निष्पक्ष न्यायमूर्ति मोदी सरकार और उनके चमचों की आंखों में खटक रहे थे। इलेक्टोरल बॉन्ड दुनिया का सबसे बड़ा घोटाला है। घोटाला करनेवाली सरकार व स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में वकालत करनेवाले रईसों ने यह पत्र लिखा है। सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बॉन्ड के मामले में इनमें से कई रईस वकीलों की बोलती बंद कर दी व लोगों के सामने सत्य को आने दिया। चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ की पीठ ने दबाव और धमकियों के सामने न झुकते हुए राष्ट्रहित में निर्णय दिया। शायद यह वकील संघ को पसंद नहीं है। वकीलों का यह संघ ऐसे हालात में जब देश की न्यायपालिका, लोकतंत्र और संविधान पर हमला हो रहा है, प्रधानमंत्री मोदी को गंभीर पत्र क्यों नहीं लिखता? मणिपुर की हिंसा में लोकतंत्र व संविधान के चीथड़े उड़ाए गए। महिलाओं को नंगा कर रास्तों पर उनका जुलूस निकाला गया। इन सबको देखकर ६०० वकीलों का यह ‘संघ’ अस्वस्थ नहीं हुआ। किसानों के आंदोलन को मोदी सरकार ने बेरहमी से कुचल दिया। किसानों पर गोली चलाई गईं। इस पर भी वकीलों का ‘संघ’ चिंता व्यक्त करता नजर नहीं आया। न्यायपालिका मोदीकृत भाजपा की निजी संपत्ति नहीं है। वह राष्ट्र का स्तंभ हैं।’ सुप्रीम कोर्ट की एक जज बेला त्रिवेदी की कार्यप्रणाली के बारे में न्यायपालिका के गलियारों में खुलकर बात होती है। उनके सामने भाजपा या मोदी सरकार को मनचाहे पैâसले की गारंटी मिल जाती है। मोदी के राजनीतिक विरोधी इस जज के सामने जमानत की अर्जी लगाने को भी तैयार नहीं होते है। दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल द्वारा की गई जमानत की अर्जी जज बेला त्रिवेदी के सामने आते ही उन्होंने सीधे वापस ले ली। ऐसा क्यों होता है? ६०० वकीलों के संघ द्वारा प्रकाश डाला जाना चाहिए। मोदी के शासनकाल में सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने सार्वजनिक प्रेस कॉन्फ्रेंस  कर न्यायालयों में धमकियों और हस्तक्षेप का पर्दाफाश किया था तब धनंजय चंद्रचूड़ मुख्य न्यायाधीश नहीं थे। जब चार न्यायाधीशों ने आशंका व्यक्त की कि सरकार के हस्तक्षेप से देश में लोकतंत्र और न्यायपालिका को खतरा होगा तो वकील संघ चुप रहा। सरकारी हस्तक्षेप और धमकियों की जानकारी खुद जजों ने दी थी। राम मंदिर पर फैसला सुनाने वाले पूर्व मुख्य न्यायाधीश को भाजपा सरकार ने रिटायरमेंट के तुरंत बाद राज्यसभा में नियुक्त कर दिया। पैâसले से पहले जज काफी तनाव में थे। बिना दबाव के हुए इतना तनाव ग्रस्त नहीं हो सकते। पश्चिम बंगाल उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश पर भाजपा ने जाल फेंककर अपने पाले में ले लिया है। ये न्यायमूर्ति न्याय के आसन पर बैठकर ममता बनर्जी को सता रहे थे। अब भाजपा ने उन्हें सीधे पार्टी में लेकर लोकसभा चुनाव का उम्मीदवार बना दिया है। यह किस नैतिकता और संस्कृति में उचित बैठता है? न्यायपालिका भारतीय लोकतंत्र और राष्ट्र के चार प्रमुख स्तंभों में से एक है। इजराइल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने संविधान में संशोधन कर जजों की नियुक्ति का अधिकार अपने हाथ में ले लिया। रशिया में भी पुतिन ने यही किया। मोदी भारत में यही करना चाहते हैं। मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ और उनके कुछ स्वाभिमानी सहयोगियों ने इसका विरोध किया। मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने बिल्कुल उचित ही कहा कि यह सुनिश्चित करना सभी निर्णयकर्ताओं की जिम्मेदारी है कि कानून यातना या उत्पीड़न का साधन नहीं, बल्कि न्याय का साधन बने। आज सरकार की प्रवृत्ति कानून लागू करने की है। जैसे ही सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली के मुख्यमंत्री को लोकतंत्र द्वारा दिए गए अधिकारों की रक्षा करने का पैâसला सुनाया, मोदी सरकार ने एक फरमान जारी करके इस लोकतांत्रिक पैâसले को तोड़ दिया। इसे कानून या न्याय का शासन नहीं कहा जा सकता। आज न्यायालयों में सभी प्रकार की नियुक्तियों में राजनीतिक हस्तक्षेप और संघ का दबदबा है। यह हस्तक्षेप सरकारी वकीलों की नियुक्ति में भी होता है इसलिए न्याय का तराजू अस्थिर है। ६०० वकीलों का ‘संघ’ इस पर चुप ही है। सुप्रीम कोर्ट के बाहर लोकतंत्र की रक्षा के लिए सैकड़ों वकील ‘ईवीएम’ के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं। ६०० वकीलों का संघ इस आंदोलन पर ध्यान देने को तैयार नहीं है। केंद्रीय जांच एजेंसियों का ​​प्रकोप जारी है। जिनके खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले न्याय प्रविष्ट हैं उनके मोदी पार्टी में जाते ही उनके मामले तुरंत बंद हो जाते हैं। महाराष्ट्र में संविधानेतर सरकार चल रही है और दबाव व धमकियों का दौर चल रहा है। ६०० वकील संघ के कानूनी विद्वान इस मामले में गैर-संवैधानिक सरकार के पक्ष में खड़े हुए। वे देश की न्यायपालिका में खतरे को लेकर चिंतित हैं। जो धमकियां दे रहे हैं और संविधान को खत्म कर रहे हैं यदि ऐसे लोगों के पक्ष में ६०० वकीलों का संघ खड़ा होता है तो इतिहास और संविधान उन्हें माफ नहीं करेगा।

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