मुख्यपृष्ठनमस्ते सामनाक्या यही रिश्तों का सार है...?

क्या यही रिश्तों का सार है…?

टूट रही हैं आशाएं,
मिट रहा है विश्वास
पीठ में खंजर घोंप रहे हैं अपने,
क्या यही रिश्तों का सार है…?
सात वचन के वह फेरे,
सात दिन भी नहीं चल पाए अपने
फिर ऐसा खेल रचाया मिट गए सब बंधन,
क्या यही रिश्तों का सार है…?
बदनाम इस तरह हुए वह,
कलंक लिए और कितना चल पाएंगे?
पाप ज्यादा दिन नहीं छुपता, जो किया वह भरोगे,
पर क्या यही रिश्तों का सार है…?
गठबंधन ऐसा कैसा किया कि,
पलभर में फरेबी बन गए वो
मौत के लिए वह कहां ले गए अपने!
क्या यही रिश्तों का सार है…?
अब रिश्तों को तार-तार कर क्या मुंह दिखाओगे ?
दुनिया में ऐसा क्या मिला जो बेवफा बन गई
एक इंसान को मौत के घाट उतार कर खुश हो!
क्या यही रिश्तों का सार है…?
ऐसा प्यार किस काम का,
जो गुमराह हो फरेबी हो।
जिसकी नींव धोखे से रखी गई हो,
आज फिर शर्मसार है जहां दुनिया वालों,
क्या यही रिश्तों का सार है…?
– हरिहर सिंह चौहान
इंदौर, मध्य प्रदेश

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